सर सैयद को सच्‍ची श्रद्धांजलि इल्‍म का चिराग़ रोशन करना है

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दुनिया में इंसानी नस्‍ल का सिलसिला हज़रत आदम अ० से शुरू होता है और यह बात सिर्फ़ ख़ुदा को मालूम है कि कब ख़त्‍म होगा। लाखो इंसान दुनिया में रोज़ आते और जाते हैं, मगर इनमें अधिकतर साधारण क़िस्‍म के इंसान होते हैं; जो पैदा होते हैं, खाते-पीते हैं और निर्धारित समय पर वापस चले जाते हैं। उनके आने-जाने से कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन दुनिया में ऐसी हस्तियाँ भी पैदा हुई हैं कि उन्‍होंने दुनिया को बहुत फ़ायदा पहुंचाया। दुनिया उनके कारनामों से हमेशा फ़ायदे उठाती रहेगी। उनमें हदीसों के वो इमाम भी हैं जिन्‍होंने रसूले ख़ुदा की बातों को हम तक पहुंचाया, फि़क़ह के वो इमाम भी हैं जिन्‍होंने दीन की बातें खोलकर पेश कीं और हमारे लिए दीन पर अमल करना आसान किया; वो वैज्ञानिक भी हैं जिन्‍होंने जि़ंदगी को आसान बनाने के सामान विकसित किए, वो वैद्य और हकीम भी हैं जो बहुत से लाइलाज बीमारों के लिए शिफ़ा का ज़रिया बने; शिक्षा के वो ज्ञानी भी हैं जिन्‍होंने इल्‍म के चिराग़ रोशन किए; उन्‍हीं में से एक नाम सर सैयद अहमद खां (रह.) का है।

सर सैयद अहमद खां (रह.) ने जो कारनामा अंजाम दिया उसको एक पलड़े में रखिए और उनके दौर की हस्तियों के कारनामे दूसरे पलड़े में रखिए, मैं यक़ीन के साथ कहता हूं कि सर सैयद का पलड़ा झुक जाएगा। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है। न इससे किसी की अहमियत कम करना है बल्कि मेरा मक़सद आज क़ौम के शुभचिंतकों की इस तरफ़ तवज्‍जो कराना है कि अगर बड़े नुक़सान से बचना चाहते हो और बेशुमार फ़ायदे हासिल करना चाहते हो तो वह काम करें जो सर सैयद (रह.) ने किया था। आज सर सैयद के गुलिस्‍तां के फूल दुनया के हर कोने में अपनी खु़शबू बिखेर रहे हैं, हज़ारों इदारे उनके नाम से चल रहे हैं, लाखों नौजवान सर सैयद के इल्‍मी सरचश्‍मे से सैराब हो चुके हैं। सर सैयद अहमद खां (रह.) वफ़ात पाकर भी जि़न्‍दा हैं।

आज हिंदोस्‍तान के मुसलमान जिन मुश्किलों में घिरे हैं वह उन मुश्किलों से बहुत कम हैं जो सर सैयद के दौर में मुसलमानों के सामने थीं। उस दौर में हम सत्‍ता खो रहे थे। पूरा देश जंग की हालत में था। इंसानों की जान पर बनी थी। नए हुक्‍मरानों के ज़ुल्‍म आसमान पर थे। आज के हालात तो उनके मुक़ाबले कुछ भी संगीन नहीं हैं। आज हमारी तादाद भी ज़्यादा है, आज हमारे पास दौलत भी अधिक है, आज हमारे पास संविधान भी है। सर सैयद (रह.) ने बहुत ख़राब हालात में वह काम किया कि आज अगर कुछ इज्‍ज़त व वक़ार है तो उसी काम की वजह से है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से इल्‍म की जो शमा रोशन हुई है उसका उजाला आसमान तक फैला हुआ है। आज भी सर सैयद की तहरीक हमारे लिए रास्‍ता दिखाने वाली रोशनी का चिराग़ है। हमारे मसले का हल भी उसी नुस्‍ख़े में है जिसको सर सैयद ने पेश किया था। वह नुस्‍ख़ा क्‍या थाॽ वह तालीम का नुस्‍ख़ा ही तो था। तालीम हमारे मसाइल का मुस्तक़िल और पक्‍का हल है; जहालत न सिर्फ़ समस्या है बल्कि बहुत से समस्याओं की जड़ भी है। इसीलिए अल्‍लाह ने क़ुरआन मजीद का आग़ाज़ ‘इक़रा’ से किया है।
मैं इस बात पर अल्‍लाह का शुक्र अदा करता हूं कि मुल्‍क के कुछ हिस्‍सों में इस नुस्‍ख़े पर अमल शुरू हो चुका है। मुसलमान तालीमी इदारे क़ायम कर रहे हैं। युनिवर्सिटियां बना रहे हैं। मगर अभी जहालत से लड़ने के लिए इनकी तादाद बहुत कम है। हमारे मर्ज़ को सामने रखते हुए इलाज के लिए हर ज़िले में यूनिवर्सिटी की ज़रूरत है।

सर सैयद के यौमे-पैदाइश पर मैं खु़द को मुबारकबाद देता हूं क्‍योंकि सर सैयद (रह.) पर मेरा भी उतना ही हक़ है जितना उनके वारिसों का है। मुझे हालांकि इस बात का अफ़सोस है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से इल्‍मी फ़ायदा न उठा सका मगर मुझे इस बात पर खुशी है और मेरा दिल मुतमइन है कि मैंने भी अपने दयार में इल्‍म का एक चिराग़ जला दिया है। यह चिराग़ सर सैयद के फ़ानूस से रोशनी हासिल कर रहा है। मेरी ख़्वाहिश है कि हश्‍र के दिन जब सर सैयद से मेरा सामना हो तो शर्मिंदगी न हो।

मैं सर सैयद अहमद (रह.) के इल्‍मी वारिसों से बड़े अदब के साथ यह अर्ज़ करना चाहता हूं कि वह सर सैयद के यौमे-पैदाइश पर अज़्म करें कि वह हर साल 17 अक्‍तूबर को मुल्‍क के किसी हिस्‍से में एक यूनिव‍र्सिटी की संग-ए-बुनियाद रखेंगे। यह नामुमकिन नहीं है। सर सैयद के इल्‍मी वारिसों और उनके चाहने वालों की तादाद के सामने यह टारगेट कुछ भी बड़ा नहीं है। मेरा मानना है कि हर ‘अलीग’ पर सर सैयद का यह क़र्ज़ है कि वह क़ौम की जहालत दूर करने के लिए तालीम का काम करे। चाहे किसी तालिबे इल्‍म की सरपरस्‍ती करे, चाहे स्‍कूल और कॉलेज बनाए। कम से कम जिस जगह कोई ‘अलीग’ रहता हो उसके आस-पास तो जहालत की बीमारी न हो। इसलिए कि सर सैयद एक इंसान या व्‍यक्ति का नाम नहीं है बल्कि एक सोच, एक राह और एक मंज़िल का नाम है। वह सोच है इंसानियत को ऊंचाइयों के कमाल पर पहुंचाने की, वह राह है तालीम की और मंज़िल है दोनों जहान में इज्‍ज़त पाने की। सर सैयद को सच्‍ची श्रद्धांजलि उनकी शान में केवल तारीफ़ें पढ़कर नहीं बल्कि हर अंधेरे रास्‍ते पर इल्‍म का चिराग़ रोशन करना है। मेरी राय है कि इस ‘डिनर कल्‍चर’ पर जो सर सैयद की याद में आयोजित किया जाता है, देश और विदेश में हज़ारों जगह इस डिनर का आयोजन होता है और उसमें लाखों रूपये ख़र्च किए जाते हैं; इसके बजाए एक वक़्त के खाने के पैसे बचाकर क़ौम की तालीम पर ख़र्च किए जाएं। इसलिए कि जिस ज़ात ने एक-एक पैसा जमा करके यूनिवर्सिटी बनाई हो, उसका नाम लेने वाले उसी के नाम पर डिनर का आयोजन करते हैं, यह बात कुछ मुनासिब मालूम नहीं होती। अल्‍लाह तआला सर सैयद अहमद खां को जन्‍नत-उल-फिरदौस में जगह दे और हमें उनके नक़्शे-क़दम पर चलने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए। आमीन

Writer: Kaleem-Ul-Hafeez                      Convenor: Indian Muslim Intellectual Forum

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