इन्सानी ज़िन्दगी और हादिसों का चोली-दामन का साथ है। जिस तरह एक शख़्स हादिसे का शिकार होता है उसी तरह क़ौमें भी हादिसों का शिकार होती हैं। कुछ लोग हादिसों से घबराकर रास्ता बदल लेते हैं, मगर हादिसे भी रंग बदलकर सामने आ जाते हैं। हादिसों से बचकर गुज़रना इन्सानी फ़ितरत है। इसलिये जानबूझ कर हादिसों को दावत नहीं देना चाहिये। यूँ तो क़ुदरत की तरफ़ से हर हादिसा इबरत और नसीहत के बहुत-से सबक़ लेकर आता है, लेकिन इन्सान की कोताह-नज़रें (अल्प-दृष्टि) वहाँ तक नहीं पहुँचतीं, इसलिये इन्सान हादिसों से उभरने के बजाय उनका शिकार होकर डूब जाता है। हिन्दुस्तानी मुसलमान भी मुसलमान की हैसियत से हर दौर में हादिसों का शिकार होते रहे हैं, मगर जहाँ तक मेरा थोड़ा-सा मुताला (अध्ययन) है मुसलमानों ने हादिसों से जितना सीखना चाहिये था, नहीं सीखा है। इसके बावजूद कुछ समझदार (दूरदृष्टि) लोग ऐसे ज़रूर हैं जिन्होंने हर हादिसे के बाद ऐसे दूरगामी फ़ैसले किये जिनके नतीजे में मुसलमानों को बड़ा फ़ायदा हुआ। हज़ारों ठोकरों और हादिसों के बाद आज भी मुसलमान जो सीना तानकर खड़ा है तो उन्हीं दूरदर्शी लोगों के वास्ते से खड़ा है। 1857 के ग़दर से सर सैयद (रह०) पैदा हुए जिनके रौशन कारनामे जग ज़ाहिर हैं, दीनी बुनियादों के तहफ़्फ़ुज़ (सुरक्षा) की ख़ातिर मौलाना क़ासिम नानौतवी (रह०) पैदा हुए, शुद्धि तहरीक और इर्तिदाद (मुसलमानों के बड़े पैमाने पर इस्लाम छोड़ जाने) की आँधी के बीच मौलाना इलियास (रह०) ने तब्लीग़ी तहरीक का चिराग़ रौशन कर दिया, कम्युनिज़्म के रास्ते में मौलाना सैयद अबुल-आला मौदूदी (रह०) दीवार बन गए। आज़ादी और विभाजन ने, अबुल-कलाम आज़ाद (रह०) जैसा माहिरे-तालीम क़ौम को दिया। आज़ादी के बाद साम्प्रदायिक दंगों के सैलाब ने कई तालीमी तहरीकों को जन्म दिया। इसी दौरान डॉ मुमताज़ अहमद ख़ाँ साहिब ने अल-अमीन मूवमेंट बैंगलोर शुरू किया, उसी दौर में डा पी ए ग़फूर साहब ने मुस्लिम एजुकेशनल सोसाइटी केरल में शुरू की, जिनके फल आज ज़ाहिर हो रहे हैं। डॉ मुमताज़ साहिब के कई शागिर्द आज मुल्क के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में क़ाबिले-ज़िक्र तालीमी काम अंजाम दे रहे हैं। बाबरी मस्जिद के गिरा दिये जाने वाले हादिसे ने मुसलमानों को झिंझोड़ने का काम किया। बाबरी मस्जिद गिराए जाने के वक़्त मेरी उम्र सिर्फ़ बीस साल थी, उन दिनों में मुरादाबाद से दिल्ली नया-नया आया था, जब मैं मुरादाबाद में रहता था तो उस दौरान बहुत-सी सियासी व समाजी शख़्सियतों से फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिलता था। बाबरी मस्जिद गिराए जाने के हादसे ने मुझे भी हालाँकि तोड़ कर रख दिया था और असुरक्षा का एहसास कराया था मगर मैंने तारीख़ के पन्नों पर हर हादिसे के बाद तालीमी तहरीकों को जन्म लेते हुए देखा और उन तहरीकों के बड़े दूरगामी नतीजे देखे। मैंने भी इरादा किया कि अगर अल्लाह मौक़ा देगा तो मैं भी तालीम के मैदान में कुछ ख़िदमत करूँगा। इस बातचीत से मेरे समझाने का मक़सद ये है कि हादसों से घबराने और मायूस होने की नहीं बल्कि उनसे सीखने, सँभलने और हिकमत के साथ मंसूबा-बन्दी की ज़रूरत है।
इस वक़्त जो हादिसा मुसलमानों के सामने है वो हालाँकि आज़ाद हिन्दुस्तान का सबसे तशवीशनाक और परेशान कर देनेवाला हादिसा है जिसके नतीजे में उनकी नागरिकता और वुजूद को ही ख़तरा पैदा हो गया है, ज़ाहिर है जो शख़्स हिन्दुस्तान का शहरी नहीं होगा उसे शहरी होने की सहूलतों से महरूम होना पड़ेगा, उसको सरकारी नौकरियों से हाथ धोना पड़ेगा, उससे तमाम सहूलतें छीन ली जाएँगी। हादिसा अपने साथ अथाह नुक़सानात लेकर आता है। आज़ादी के वक़्त मुल्क तक़सीम हुआ, रिश्तेदारों और दोस्तों के खोने का नुक़सान हुआ, दंगों में जान व माल का नुक़सान हुआ, तीन तलाक़ बिल ने शरीअत में सेंद लगाई, बाबरी मस्जिद के फ़ैसले ने ख़ुदा के सामने शर्मिन्दा किया, मगर CAA और NRC के बाद मुसलमानों में जोश पैदा हुआ है, वो मैदान में आए हैं, वो ख़्वाबे-ग़फ़लत से बेदार हुए हैं, ये रौशन मुस्तक़बिल की ज़मानत है। हमें ये भी याद रखना चाहिये कि हादिसे हालाँकि अचानक हो जानेवाली चीज़ का नाम है लेकिन हादिसों के होने के लिये लम्बा वक़्त दरकार होता है। मुल्क की तक़सीम का वाक़िआ आज़ादी की एक लम्बी जंग का नतीजा था, साम्प्रदायिक दंगे नफ़रत पर आधारित उस लिट्रेचर और तालीम का नतीजा हैं जो 1925 से पढ़ाया और सिखाया जा रहा है, बाबरी मस्जिद के गिराए जाने से मन्दिर की तामीर का अन्तराल भी तीस साल पर फैला हुआ है। इसी तरह NRC भी एक दो दिन का खेल नहीं है। इसके लागू होने और नतीजों के आने में भी बीस से तीस साल लग सकते हैं। इस दौरान मुसलमान अगर चाहें तो न सिर्फ़ अपनी, बल्कि अपने मुल्क की तक़दीर और तस्वीर दोनों बदल सकते हैं। मगर इसके लिये फिर किसी सर सैयद जैसे दूरदर्शी दानिशवर और बुद्धिजीवी की ज़रूरत होगी
ये बात अब वाज़ेह हो गई है कि क़ौमों के उरूज व ज़वाल का ताल्लुक़ उसके तालीमी गिराफ़ के उतार-चढ़ाव से है। जो क़ौम तालीम के मैदान में जितनी आगे निकलेगी वो दुनिया के आसमान पर उतनी ही बुलन्दी पर रहेगी। यही सोचकर सर सैयद ने मोहम्मडन कॉलेज शुरू किया था, इसी फ़िक्र ने आज़ाद से तालीमी इदारे क़ायम कराए थे, इसी के नतीजे में दक्षिणी भारत में तालीमी इन्क़िलाब बरपा करनेवाली तहरीकों ने जन्म लिया, जिनकी निगरानी में लाखों बच्चे तालीम हासिल कर रहे हैं। इसलिये जो सोचने-समझने और कुछ करने का जज़्बा रखते हैं, उन लोगों से मेरी दर्दमन्दाना अपील है कि वो क़ौम और मिल्लत का अगर कुछ भला चाहते हैं तो मैयारी स्कूल, कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों का जाल बिछा दें। बासलाहियत और ज़हीन स्टूडेंट्स को कोचिंग दिलाएँ ताकि वो कॉम्पेटीशन में कामयाबी हासिल कर सकें। CAA, NRC और NPR का बहतर जवाब तालीमी बेदारी मुहिम से ही दिया जा सकता है, मैं ये बात इससे पहले भी कह चुका हूँ कि हममें से हर पढ़ा-लिखा आदमी अपने आस-पास के लोगों को तालीम के लिये तैयार करे, उनके तालीमी मसायल को हल करे, अपने ग़रीब रिश्तेदारों के बच्चों के तालीमी ख़र्चे बर्दाश्त करे। ताकि हमारी आनेवाली नस्ल ब्रादराने-वतन से तालीम के हर मैदान में मुक़ाबला करे। अगर हमने ऐसा किया तो आज जिन लोगों को नागरिकता के छिन जाने का डर है इन्शाअल्लाह उनकी नस्लें नगरिकता के तहफ़्फ़ुज़ के साथ-साथ नागरिकों का तहफ़्फ़ुज़ भी करेंगी।
ऐ मेरी क़ौम के ख़ैर ख़्वाहो! अपनी ही नहीं, अपनी नस्लों की फ़िक्र करो, बल्कि तुम तो बेहतरीन उम्मत हो सारी इन्सानियत की भलाई की फ़िक्र करना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। ये नफ़रत के शोले जहालत की आग ने भड़काए हैं उन्हें सिर्फ़ इल्म के शबनमी क़तरे ही ठण्डा कर सकते हैं। ये एहतिजाज और मज़ाहिरे तो वक़्ती तौर पर कारगर हो सकते हैं मगर मसायल का मुस्तक़िल हल तो सिर्फ़ तालीम से ही मुमकिन है। ये हादिसे तुम्हें नीचे गिराने नहीं ऊपर उठाने के लिये आए हैं, हादिसे ज़िन्दगी की पहचान हैं। हादिसों के बावजूद ज़िन्दा रहना ही कमाल है।
हादिसों से सीखिये तसनीम जीने का सबक़।
ज़िन्दगी मुश्किल है, मर जाना बहुत आसान है।।
कलीमुल हफ़ीज़
कन्विनर-इंडियन मुस्लिम इंटेलेक्चुअल्स फ़ोरम
जामिया नगर, नई दिल्ली