अपराधियों और राजनीति के बीच हमेशा से गहरा संबंध रहा है। कोई भी राजनीतिक दल अपराधियों से मुक्त होने का दावा नहीं कर सकता है। इसके प्रमाण समय-समय पर सामने आते रहे हैं। शहरों, कस्बों और गांवों के स्तर पर चुनावों का क्या शुमार ? जब भी विधानसभा या लोकसभा चुनाव होते हैं, तो बार-बार आंकड़े पेश किए जाते हैं कि एक उस पार्टी के इतने अपराधी उम्मीदवार हैं और इस पार्टी के इतने प्रतिशत हत्यारे, बलात्कारी, लुटेरे और भ्रष्ट उम्मीदवार हैं। चुनाव के बाद उनमें से कितने प्रतिशत और किस पार्टी के उम्मीदवारों ने विजय हासिल की, इसके आंकड़े भी सामने आते हैं। ऐसा एक बार नहीं, बार-बार होता है, बल्कि हर चुनाव के बाद होता है। न तों कोई राजनीतिक दल ईमानदारी से अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करता है, और न ही कोई सरकार निष्पक्षता के साथ अपराध और राजनीति के गठजोड़ पर अंकुश लगाने या उसे तोड़ने का प्रयास करती है। शायद कानपुर में एक अधिकारी समेत 8 पुलिस कर्मियों की निर्मम हत्या इसी का परिणाम है। शायद इसी कारण यूपी के ही कुंडा में डीएसपी जिया उल हक़ को दिनदहाड़े गोलियों से भून दिया जाता है। अपराध और राजनीति के गठजोड़ के परिणाम स्वरूप ही बुलंदशहर में सरेआम पुलिस महानिरीक्षक सुबोध कुमार सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है और जल्दी ही जब उनके हत्यारे ज़मानत पर रिहा होते हैं तो उनको फूलमाला पहनाई जाती है और बड़े गर्व के साथ नारे लगाए जाते हैं। उनका किसी नायक की तरह स्वागत किया जाता है। यह तो बस पिछले चंद उदाहरण हैं, अगर हम इतिहास के पन्नों को पलटें तो हमें ऐसी अनगिनत कहानियाँ मिलेंगी।
यूपी की बात करें तो कानपुर की हालिया घटना ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। साथ ही इस घटना ने योगी सरकार के सामने बड़ी चुनौती पेश कर दी है। हमने बार-बार अपराध और राजनीति के गठजोड़ की कहानियां सुनी हैं, लेकिन इस बार अपराध और राजनीति के साथ पुलिस की सांठगांठ की कहानी और भी भयावह है। अपराधियों या अन्य लोगों द्वारा पुलिस के लिए मुखबिरी का एक इतिहास रहा है, लेकिन यह संभवत: पहली बार है कि जहां पुलिस खुद अपराधियों के लिए मुखबिरी करती है। एक सीओ और कई पुलिस वालों का निलंबन साबित करता है कि अब राजनीति और अपराध के साथ पुलिस का भी गठजोड़ हो चुका है। यह इसलिए संभव है क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल या सरकार ईमानदारी से इस सांठगांठ को तोड़ने का प्रयास नहीं करती है। हालाँकि इस तरह के मामले पूरे देश में देखे जा सकते हैं, लेकिन यूपी शायद उन सभी से आगे है। राज्य में कानून व्यवस्था के बारे में योगी सरकार के दावों की पोल पहले ही खुल चुकी है, और अब यह स्पष्ट हो गया है कि योगी की ‘एनकाउंटर नीति’ न तो अपराध पर अंकुश लगा सकती है और न ही इससे अपराधियों में खौफ बैठा सकती है। सवाल यह भी है कि योगी आदित्यनाथ के आदेश पर राज्य में सैकड़ों अपराधियों का इंकाउंटर करने वाली पुलिस ने कानपुर के कुख्यात अपराधी विकास दुबे को उसके खिलाफ 60 से अधिक मामले दर्ज होने के बावजूद आज़ाद कैसे छोड़ दिया? क्या वह पुलिस की नज़र में कोई छोटा मोटा अपराधी था या फिर वह पुलिस से भी ज्यादा प्रभावशाली था?
योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही सबसे पहले राज्य को अपराध और अपराधियों से मुक्त बनाने का वादा किया था। यह अलग बात है कि उस समय खुद उनके खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज थे। बाद में उन्हें इन सभी मामलों से छुटकारा मिल गया। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने जो कार्यशैली अपनाई उस पर हमेशा सवालिया निशान लगते रहे। चाहे वह अपराधियों को ‘ठोकने’ की बात हो या प्रदर्शनकारियों से ‘बदला’ लेने की। नतीजतन सरकार की नीतियों और इरादों के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले महीनों से सलाखों के पीछे हैं, और चुनिंदा पार्टियों या संगठनों से संबंधित अपराधी आज़ाद घूम रहे हैं। अगर योगी आदित्यनाथ ने ‘ठोंक देने’ या ’बदला लेने’ की बजाय निष्पक्ष और ईमानदारी से काम करने का प्रयास किया होता, तो शायद बुलंदशहर या कानपुर जैसी घटनाएं नहीं होतीं। दोषी कोई भी हो, किसी भी पार्टी का हो, किसी भी समूह का हो, किसी भी संप्रदाय का हो, अगर सरकार और कानून बिना किसी भेदभाव के काम करते हैं, तो कानून का शासन स्थापित होगा। जो भी दोषी है, उसे सजा मिलनी ही चाहिए।
यूपी में शुरू से ही योगी की ‘एनकाउंटर पॉलिसी’ पर सवाल उठते रहे हैं। अधिकांश मुठभेड़ें संदेह के घेरे में रही हैं। लखनऊ विवेक तिवारी एनकाउंटर का मामला काफी चर्चा में रहा था, जिसमें पुलिस को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था। बाद में इस मामले में दो पुलिसकर्मियों को निलंबित भी कर दिया गया था। नोएडा में कुछ समय पहले एक जिम संचालक को आपसी रंजिश के चलते एक सिपाही ने गोली मार दी थी, बाद में इसे मुठभेड़ बता दिया गया। मामले की जांच के बाद पुलिस वाले का दावा झूठा निकला और उसके खिलाफ मामला दर्ज किया गया। यही नहीं, मुठभेड़ों के कुछ ऐसे मामले भी सामने आए हैं जिनमें पुलिस कर्मियों ने प्रमोशन के लालच में निर्दोष लोगों की हत्या की है। ऐसे मामलों की भी जांच की जा रही है। पिछले साल, एक एनजीओ ने कुछ मुठभेड़ों की समीक्षा करने के बाद एक रिपोर्ट जारी की। 16 मामले ऐसे थे जो सभी तरह की जांच पड़ताल के बाद मुठभेड़ों की सत्यता पर सवाल उठाते हैं। उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रहे वीएन राय का इस बारे में कहना है कि “मुठभेड़ों की संख्या में वृद्धि करके अपराध को कम नहीं किया जा सकता है। फर्ज़ी मुठभेड़ एक गंभीर समस्या है। जिस प्रकार हाल के दिनों में यूपी में मुठभेड़ों की खबरें आई हैं, ऐसे इनमें बहुत सी ऐसी हैं जिन्हें सही नहीं ठहराया जा सकता। सभी मुठभेड़ों में, पुलिस ने ऐसे लोगों को मार दिया जो कभी किसी अपराध में शामिल नहीं थे। आखिर पुलिस ऐसे लोगों को कैसे दोषी ठहरा सकती है?” 2017 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें कहा गया कि देश में फर्जी मुठभेड़ की शिकायतों में उत्तर प्रदेश पुलिस सबसे आगे था। आयोग ने पिछले 12 वर्षों के आंकड़े जारी किए थे, जिसमें देश भर से फर्जी मुठभेड़ों की कुल 1241 शिकायतें आयोग तक पहुंची थीं, जिनमें से 455 मामले यूपी पुलिस के खिलाफ थे। यूपी सरकार और खुद मुख्यमंत्री बार बार यह दावा करते रहे हैं कि सरकार और पुलिस कार्रवाई के डर से सभी अपराधी अपनी ज़मानत रद्द करवाने के बाद या तो जेल चले गए या राज्य छोड़कर चले गए, लेकिन यूपी में बढ़ती अपराध की वारदातें सरकार के इन दावों पर भी सवाल उठाती हैं।
योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बने तीन साल हो चुके हैं और दावा किया गया था कि अपराधी या तो जेल में रहेंगे या उन्हें सजा दी जाएगी। कानपुर की ताज़ा घटना से बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि अपराधी न तो जेल में था और न ही उसे एनकाउंटर पॉलिसी का कोई डर था। कानपुर में हाल की घटना अपराधियों, पुलिस और राजनीति के गठजोड़ का एक जीवंत उदाहरण है और विकास दुबे जैसे कुख्यात अपराधी, अपराधियों के राजनीतिक संरक्षण की पैदावार भी हैं। इस संबंध में यही कहा जा सकता है कि अगर यूपी सरकार और पुलिस ने अपराधियों के बीच अगर भेदभाव नहीं किया होता, तो कानपुर में पुलिस पर AK-47 जैसे हथियारों से हमला नहीं होता और पुलिस के 8 जवानों को अपनी जान से हाथ नहीं धोना पड़ता।
(लेखक इंक़लाब दिल्ली के स्थानीय संपादक हैं)