कलीमुल हफ़ीज़
मुमकिन नहीं कि शामे-अलम की सहर न हो
मिल्लत का जायज़ा लेने से मालूम होता है कि मिल्लत में बहुत सी कमज़ोरियां हैं, जिनकी गिनती करना मुश्किल है। नुमायां कमज़ोरियों में मसलकी, जमाअती इख़्तिलाफ़, ज़ात और बिरादरियों की असबियतें, निरक्षरता, फ़िजूलख़र्ची वग़ैरह शामिल हैं। लेकिन क्या मुसलमानों में सिर्फ़ कमज़ोरियां हैं? क्या उनमें कोई खूबी नहीं है? ऐसा नहीं है। मिल्लत में बहुत सी खूबियां हैं। लेकिन हम जब ख़राबियों पर नज़र रखते हैं तो हमें सिर्फ़ खराबियां ही नज़र आती हैं। हर आदमी में अच्छाइयां हैं, अगर हम उनको देख सकें। हर क़ौम में अच्छाइयां हैं, अगर हम जान सकें। इसी तरह हर आदमी और हर क़ौम में कुछ न कुछ कमज़ोरियां हैं। क्योंकि हमारी नज़र महदूद है और हमारा मुतालआ नाक़िस है इसलिए हमें अपनों में ख़राबियां ही ख़राबियां नज़र आती हैं।
खि़लाफ़त के ख़त्म हो जाने के बाद मिल्लत जिन उतार-चढ़ाव से गुज़री है अगर कोई दूसरी क़ौम होती तो उसका नामो-निशान तक मिट जाता। वह अक्सरियत में गुम होकर रह जाती। यह कम बड़ी बात नहीं है कि हिन्दोस्तान समेत पूरी दुनिया में मिल्लत अपनी पहचान के साथ ज़िन्दा है! मसलकी व जमाअती इख़्तिलाफ़ देखने वालों को कम से कम यह तो देखना चाहिए कि एक मसलक के लोग अपने इमाम पर मुत्तफ़िक़ हैं; ज़ात
बिरादरी की असबियतों के बावजूद एक ही सफ़ में महमूद व अयाज़ खड़े हैं। उम्मत में इख़्तिलाफ़ की लिस्ट पढ़ने वालों को यह भी देखना चाहिए कि यह अकेली क़ौम है जो अपने बुनियादी अक़ीदे में एकमत है।
मिल्लत में लाख कमज़ोरियों के बावजूद आज भी मुल्क के मुख़तलिफ़ हिस्सों में मिल्लत के सैंकड़ों हमदर्द मिल्लत में इत्तिहाद क़ायम करने, उसको बुलंदियों पर पहुंचाने और उसकी जहालत दूर करने का जतन कर रहे हैं। इन जतन करने वाले पुराने ज़माने के लोगों में अगर शाह वलीउल्लाह मुहदि्दस देहलवी, मौलाना क़ासिम नानौतवी, मौलाना मौदूदी, मौलाना अबुलकलाम आजाद, सर सैयद अहमद खां, बदरूदीन तैयब जी, अल्लामा शिबली नौमानी का ज़िक्र किया जा सकता है तो मौजूदा दौर में डा. मुमताज़ अहमद खां (बैंगलौर), डा. फ़ज़ल ग़फूर (केरल), डा. नूरूल इस्लाम (पश्चिमी बंगाल) और जनाब पी.के. इनामदार (महाराष्ट्र) डॉक्टर फखरुद्दीन मोहम्मद (हैदराबाद) वग़ैरह के नाम शामिल हैं। यह बात किसी तरह मुनासिब नहीं है कि हम कमियों का ज़िक्र तो करें और खूबियों से नज़र बचा लें। अल्लामा इक़बाल ने इसी उम्मत के बारे में कहा था-
नहीं है नाउम्मीद इक़बाल अपनी किश्ते वीराँ से,
ज़रा नम हो तो यह मिट्टी बहुत ज़रखैज़ है साक़ी।
यह मिट्टी बड़ी ज़रखै़ज़ है, यहां फ़सल हो सकती है; बस एक किसान की ज़रूरत है जो ज़रा सी मेहनत करके वक़्त पर बीज डाल दे और देखभाल करे; फिर लहलहाती फ़सल तैयार है। तमाम कमज़ोरियों के बावजूद यह मिल्लत अल्लाह पर ईमान रखती है, अपने रसूल पर जान देने को तैयार है, अपनी गाढ़ी कमाई दीन के नाम पर ख़र्च करती है। इसके मुक़ाबले कौन सी क़ौम है जो इस मुल्क में इतनी तादाद में अपने मज़हबी इदारे बग़ैर सरकारी इमदाद के चला रही हो। कौनसी क़ौम है जो लाखों इमामों की तनख्वाह का इंतेज़ाम करती हो। कौनसी क़ौम है जो लाखों छात्रों का खर्च डठा रही हो। हमें और आपको तो अपने घर परिवार के कुछ लोगों का ख़र्च उठाने में पसीना आ जाता है। मैं जब मदरसों में हज़ारों छात्रों को देखता हूं और तीनों वक़्त उनके खाने का हिसाब लगाता हूं; उनकी रिहाइश, उनकी तालीम, उनके दूसरे खर्च अलग रहे; तो खुदा की रज़्ज़क़ियत पर ईमान ज्यादा मज़बूत हो जाता है। हज़ार झगडों के बावजूद कम से कम एक मुहल्ले और एक मसलक के हज़ारों लोग अपने इमाम की इत्तिबा करते नज़र आते हैं तो इंतेशार पैदा करने वाले और उसे हवा देने वाले शैतान भागते नज़र आते हैं।
हमें नाउम्मीद नहीं होना चाहिए। नाउम्मीदी कुफ्र है। माफ़ कीजिए आज हमारे रहबर व रहनुमा ज़्यादतर अपनी तक़रीरों में मिल्लत की कमज़ोरियों को तफ़सील से बयान करते हैं, उनको लानत-मलामत करते हैं। कमज़ोरियों को बयान करने से तो मैं नहीं रोकता लेकिन गुज़ारिश ज़रूर करूंगा कि ज़रा अपनी गुफ़्तुगू को बैलेंस रखें और ख़ामियों के साथ खूबियों का ज़िक्र ज़रूर करें; सिर्फ़ ख़ामियां और कमज़ोरियां बयान करने से मायूसी में इज़ाफ़ा होता है और मासूस क़ौमें कोई इंक़लाब लाना तो दूर वह इंक़लाब के ज़िक्र से भी घबराती हैं। क़ौमों पर उरूज व ज़वाल आता रहता है। यही ईसाई क़ौम जो आज सारी दुनिया पर हुक्मरां है बारह सौ ईसवी से सौलह सौ ईसवी तक अंधेरी घाटी में पड़ी थी और मुसलमानों का परचम दो तिहाई दुनिया पर लहरा रहा था। यही अमेरिका जो आज खुद को आलमगीर समझता है, वास्को डिगामा की खोज से पहले दुनिया इसके नाम तक से अनजान थी। यही हिन्दू क़ौम जिसका सूरज अभी ऊपर उठना शुरू हुआ है, यह आपके एहसानों के कारण आपको देवता समझती थी।
लगातार हौसले तोड़ना और मसाइल के बार-बार बयान से बेहिसी पैदा होती है। हमें मसाइल के तज़करे के साथ हल भी बताना चाहिए। न केवल हल बताना चाहिए बल्कि अमल करके भी दिखाना चाहिए। मेरे नज़दीक उम्मत के मसाइल का वाहिद हल उसकी तालीम है। तालीम से ही माली खुशहाली है, तालीम से होकर ही इत्तिहाद की तरफ़ रास्ता खुलता है। तालीम के साथ साथ तर्बियत और किरदारसाज़ी ज़रूरी है, बेकिरदार लोग कोई कारनामा अंजाम नहीं दे सकते।
ऐ मेरी क़ौम के हमदर्दो! उठो और जहालत के अंधेरों के खि़लाफ़ खड़े हो जाओ, तुम जो कुछ जानते हो दूसरों को सिखा दो। तुम जो कुछ नहीं जानते वह दूसरों से सीख लो। अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा तालीम के लिए वक़्फ़ कर दो। आओ! जिस मसलक से भी अक़ीदत रखते हो रखो मगर तालीम को सीने से लगा लो। हर जगह इल्म का पौदा लगाओ, उसको अपने खूने जिगर से सैराब करो। ऐ मेरी क़ौम के रहनुमाओ! आगे बढ़ो, तालीम के मैदान में हमारी रहनुमाई करो, तालीम के ज़रिये तुम्हारी क़यादत और ज्यादा नुमायां होगी। तुम्हारे मानने वाले जब इल्म की ऊंचाइयों पर पहुचेंगे तो तुम्हारे सर पर ही ताज रखा जाएगा। ऐ मेरी क़ौम के सियासतदानो! तुम किसीं भी सियासी जमाअत से वाबस्ता रहो मगर अपनी सियासत से तालीम की राहें आसान करो, तुम साहबे इक्तेदार हो तो बहुत कुछ कर सकते हो। आओ! इल्म का एक चिराग़ रोशन कर दो ताकि क़ौम को रोशनी मिल सके। यक़ीन मानो तुम्हारा इक्तेदार उस रोशनी में जगमगा उठेगा।
यह उम्मत बांझ नहीं है। आज भी क़ाबिले फ़ख़्र सपूतों से मालामाल है। कितने ही नायाब हीरे हैं जिन पर ज़माने की गर्द पड़ गई है। असल में मिल्लत की एक कमज़ोरी यह है कि वह अपने क़ाबिले क़द्र लोगों की क़द्र नहीं करती। अपने ही मज़हबी भाइयों के कामों को नहीं सराहती बल्कि हौसला तोड़ती है। लेकिन मैं नाउम्मीद नहीं हूं। हमें चाहिए कि हम भलाई के कामों में एक दूसरे की मदद करें। ज़ाती मफ़ादात को मिल्लत के फ़ायदों पर तरजीह दें। आपस में भरोसा करें। किसी के भरोसे को ठेस न पहुचाएं। अपने भाइयों की कमज़ोरियों के साथ साथ खूबियों प नज़र रखें। दिल से दिल और हाथ से हाथ मिलाकर अंधेरे का सीना चीरते हुए आगे बढ़ें, रोशन सुबह आपके इंतेज़ार में है-
इतना भी नाउम्मीद दिले कम-नज़र न हो,
मुमकिन नहीं कि शामे अलम की सहर न हो।
Writer: Kaleem-Ul-Hafeez Convenor: Indian Muslim Intellectual Forum