कलीमुल हफ़ीज़
सुप्रीम कोर्ट की हिदायत पर मरकज़ी हुकूमत ने एक फ़रमांबरदार शागिर्द की तरह अमल किया और आखि़रकार तलाक़ बिल न सिर्फ़ पास हो गया बल्कि राष्ट्रपति महोदय के दस्तख़त से क़ानून भी बन गया। हुकूमत ने जो तेज़ी और फि़क्रमंदी इस बिल के संबंध में दिखाई और राष्ट्रपति भवन ने बिना देरी किए जिस तरह उस पर अपनी मुहर लगाई, काश!….मुल्क के दूसरे मसलों पर भी यही तेज़ी और तवज्जो दिखाई जाती तो मुल्क में क़ानून का एहतराम भी होता और सरकार की नीयत पर सवालात भी खड़े न होते। ख़ैर अब एक बार में दी गई तीन तलाक़ न सिर्फ़ यह कि वाक़य नहीं होगी बल्कि ऐसा करना जुर्म भी माना जाएगा। मैं इस क़ानून की कमियों, कमज़ोरियों और अच्छाइयों पर ज्या़दा बात नहीं करूंगा क्योंकि अब इस बहस से कोई फ़ायदा नहीं है। लेकिन हम यह एहतिसाब, आत्म-निरीक्षण तो ज़रूर करेंगे और करना भी चाहिए कि आखि़र इस बिल के पास होने और हुकूमत को शरीयत में दख़ल देने का इख्ति़यार देने का कु़सूरवार कौन है? ताकि आइन्दा के नुक़सान से महफूज़ रहा जा सके।
तलाक़ बिल पास होने और क़ानून बनने में कुसूर किसका है? क्या मुस्लिम अवाम का, जिसको दीन व शरीअत का इल्म नहीं, वह तो बेचारे भेड़ चाल की तरह अपने अपने उलेमा की पीछे चलने और इताअत करने ही में अपनी भलाई समझते हैं। तो क्या मुस्लिम सियासी क़यादत की ग़लती है कि उसकी नाक के नीचे बिल पास हो गया और वह कुछ न कर सकी, लेकिन मुस्लिम सियासी क़यादत है ही कब? वहां तो मफ़ाद परस्ती, खुदग़र्जी और मौक़ापरस्ती की सियासत है। सियासत में तो पार्टी के उसूल और पॉलीसी, दीन व शरीअत पर भारी हैं। तभी तो विपक्ष की उन तमाम सेक्युलर पार्टियों ने भी पार्लियमेण्ट से वाकआउट करके हुकूमत की मदद की जो सिर्फ़ और सिर्फ़ मुसलमानों के दम पर पार्लियमेण्ट में पहुंची हैं। उनमें TRS भी शामिल है जिसका गठबंधन AIMIM से है। वही AIMIM जिसके क़ायद ने लोकसभा में तलाक़ बिल पर दलील के साथ, ज़ोरदार और शानदार भाषण दिया था। मगर अपनी इत्तेहादी जमात TRS को बिल की कमियां न बता सके। उनमें समाजवादी पार्टी भी शामिल है, जिसके तेज़तर्रार स्पीकर जनाब आज़म खां ने तलाक़ बिल के विरोध में ज़मीन व आसमान एक कर दिया था। मगर वह अपनी समाजवादी पार्टी के राज्य सभा सदस्यों को तलाक़ बिल के विरोध के लिए आमादा न कर सके। ख़ैर, बहुजन समाज पार्टी की तो बात ही छोडि़ए, वह तो इस मुल्क की सियासत में मफ़ाद परस्ती की पहचान के तौर पर जानी जाती है। मगर कांग्रेस के सदस्यों की हिम्मत की तारीफ़ कीजिए कि उन्होंने ज़मीर-फ़रोशी में कर्नाटक के विधायकों को भी पीछे छोड़ दिया। वही कांग्रेस जिसके सदस्यों ने लोकसभा में बिल के विरोध में वोट दिया उन्हें मालूम था कि यहां विरोध से कोई असर नहीं पड़ने वाला, वही कांग्रेस जिसको एक ज़माने तक उलेमा मुसलमानों का वोट दिलाते रहे, लेकिन वह मुस्लिम समस्याओं पर कांग्रेस पार्टी को मफा़द-परस्ती की सियासत से बाहर न निकाल सके। अब आप किस सियासी जमाअत और किस सियासी क़ायद पर भरोसा करेंगे? अब तक किसी मुस्लिम सियासी क़ायद ने न तो पार्टी छोड़ी, ना ही संसद की सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया और ना ही गठबंधन से अलग होने का ऐलान किया।
मेरी नज़र में इस बिल के पास होने में बड़ा कुसूर हमारी दीनी क़यादत का है। मैं कड़वी बात कहने पर माफ़ी चाहता हूँ। मगर हमें बेलाग, सच्ची बात कह देनी चाहिए। तलाक़ एक शुद्ध दीनी मामला है। इसका सीधा संबंध उलेमा और दीनी क़यादत से है। इस्लाम के पारिवारिक क़ानूनों की तशरीह, उन्हें खोलकर बयान करना, उनकी इशाअत, कानून समझाना और उनकी हिफाज़त करने के लिए ही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की स्थापना की गयी है। अवाम अपने पसीने की गाढ़ी कमाई इसीलिए तो ख़र्च करती है कि यह उलेमा और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मुल्क में उनके शरई मामलों की हिफ़ाज़त करेंगे। मुझे याद है कि बोर्ड ने अपने जलसे में यह बात तय की थी कि वह मुल्क के संसद सदस्यों समेत तमाम सियासी हस्तियों को इस्लाम के पारिवारिक क़ानूनों की हिकमत से अवगत कराएगा और उन्हें आमादा करेगा कि वह संसद में ऐसे किसी भी क़ानून बनाने का विरोध करेंगे जो मुस्लिम पर्सनल लॉ में दख़ल माना जाता हो। इसलिए तलाक़ बिल का पास हो जाना, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की खुली नाकामी है। बोर्ड को अपनी इस नाकामी पर, ज़रूर ग़ौर करना चाहिए।
हमारी दीनी क़यादत को अपना गहराई से एहतिसाब, निरीक्षण करना चाहिए। आखि़र आज़ादी के बाद इन बहत्तर सालों में उनकी कारकर्दगी, performance क्या रही? जमाअतों की कारगुज़ारियों, रिपोर्टों, अखबारों में छपने वाली उनकी खबरों और उनके पालिसी-प्रोग्राम पढ़ने से तो ऐसा लगता है कि मुल्क में इस्लामी इंकलाब बस आने ही वाला है। ब्रादराने-वतन में दावती सरगर्मियां अंजाम देने वाले इदारों और शख्सियातों पर यक़ीन कीजिए तो मालूम होता है कि रोज़ाना हज़ारों लोग इस्लाम कुबूल कर रहे हैं। सैंकड़ों नए मदरसे हर साल खुलते हैं, लाखों लोग उम्मत के लिए कोशिश कर रहे हैं। अगर आप दीनी इदारों, जमाअतों और तंजी़मों पर ख़र्च का हिसाब लगाएंगे तो हज़ारों करोड़ रूपये सालाना का हिसाब निकलेगा जो उम्मत की इस्लाह, दीन की दावत, इस्लाम की तबलीग़ और तज़किया व तर्बियत पर खर्च होता है। मगर खु़दा झूठ न बुलवाए, दीन पर अमल करने और सच्चे दीनदार होने के मामले में हम हर दिन नीचे की तरफ़ गिर रहे हैं। आज़ादी के वक्त हम जितने दीनदार थे, अब वैसे नहीं रहे। हां, मस्जिदें, मदरसे और जमाअतों के दफ्तरों की इमारतें पहले से ज्या़दा मज़बूत, शानदार, ऊंची और बड़ी हुई हैं। हमें इस सूरतेहाल पर ग़ौर करने की ज़रूरत है।
तलाक़ के संबंध में उलेमा के बीच 1 और 3 का इख्ति़लाफ़ रहा और जिसे हल करने में उलेमा नाकाम रहे। जबकि इस बात पर तमाम उलेमा एक राय हैं कि एक साथ तीन तलाक़ देना बिदअत यानी गुनाह है। लेकिन मसलकी बड़ाई, घमण्ड और जि़द के शिकार ये उलेमा तीन तलाक़ को एक तलाक़ मानने पर तैयार न हुए। अगर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तीन तलाक़ को एक तलाक़ मान लेता और तलाक़े बिदअत देने वाले को मुजरिम मानते हुए किसी ‘’कफ्फ़ारे’’ का नियम बना देता तो शायद हुकूमत को तलाक के नाम पर यह खेल खेलने का मौक़ा न मिलता। जबकि उलेमा के सामने इसकी मिसाल भी मौजूद थी कि हजरत उमर (रजि़अल्लाहु अन्हु) ने तलाके़ बिदअत देने वाले को कोड़े मारने की सज़ा की बात कही थी। अगर उलेमा इसी तरह मसलक और फि़क़ह के इख्ति़लाफ का शिकार होते रहे तो वह दिन दूर नहीं कि हुकूमत को हलाला, नक़ाब और एक से ज्या़दा निकाह आदि पर भी कानून बनाने का मौक़ा मिल जाएगा। क्योंकि हुकूमत इसका इशारा भी दे चुकी है। मेरी गुजा़रिश है कि बोर्ड और उलेमा इन मामलों पर संजीदगी से ग़ौर करें । मसलक और फि़क़ह के बजाए कु़रआन व हदीस की रोशनी में जदीद हालात को सामने रखकर उम्मत की रहनुमाई फरमाएं। इस्लाम के पारिवारिक कानूनों का रूपांतरण (codification) संवैधानिक भाषा में किया जाए। अफसोस होता है कि जो दीन औरतों की आजा़दी और उनके अधिकारों की बहाली का पैग़ाम लेकर आया था, आज उसी दीन के ताल्लुक़ से कहा जा रहा है कि वह औरतों पर ज़ुल्म ढा रहा है। ऐसा केवल इसलिए है कि हमारे यहां भी औरतों के संबंध में वही मानसिकता पाई जाती है जो ब्रादराने वतन की मज़हबी किताबों में दर्ज है। हमने भी लड़कों की तालीम के लिए तो एक-एक शहर में दर्जनों मदरसे बनाए, मगर लड़कियों की तालीम का उचित प्रबंध नहीं किया। हमारे दीनी हलक़ों ने लड़कों के लिए तो स्कूली तालीम की इजाजत दी मगर लड़कियों के लिए उसे नापसंद समझा गया। हमने भी अपनी सारी जायदाद लड़कों में तक़्सीम कर दी और लड़कियों को उनके विरासत के हक़ से महरूम कर दिया। हमारे यहां भी लड़की एक बोझ समझी जाने लगी। हमने भी औरतों को सर्विस करने और तिजारत करने पर पाबंदियां लगा दीं और उन्हें मर्दों के हाथ के नीचे, उनके रहम पर ही रखा। हमारे अधिकतर मर्दों ने भी उन्हें पैर की जूती और खा़नदान की नौकरानी ही समझा। शादी को एक एग्रीमेण्ट और कंट्रेक्ट की बात बताने वाले क्यों यह भूल गए कि एग्रीमेण्ट के दोनों पक्ष को बराबरी के अधिकार हासिल होते हैं। मर्दो की ‘’क़व्वामियत’’ का वज़ीफ़ा पढ़ने वाले क्यों भूल जाते हैं कि ‘’क़व्वामियत’’ का मतलब औरतों पर जुल्म करने का सर्टिफिकेट मिलना नहीं बल्कि यह उसकी सुरक्षा की जि़म्मेदारी का नाम है। खुदा के वास्ते! अल्लाह के दीन को उसी शक्ल में रहने दो जैसा वह कु़रआन व सुन्नत में है। दीन के पुराने इमामों ने अपने ज़माने और हालात के लिहाज़ से दीन व शरीअत के जो एहकाम बयान किए हैं वह अपनी जगह ठीक हैं लेकिन असल दीन आज भी कुरआन व सुन्नत ही है।
तलाक़ बिल से कम से कम यह फ़ायदा तो है कि मुसलमान तलाक़े बिदअत से बचेंगे, तलाक़ देने का प्रतिशत मुसलमानों में जो पहले से ही बहुत कम है अब वह और भी घट जाएगा, तलाक़ देने से पहले हज़ार बार सोचा जाएगा और विवाह बंधन से अलग होने का फै़सला पूरे होश व हवास के साथ लिया जाएगा। काश! इससे यह फ़ायदा भी हो जाए कि हम औरतों को वह तमाम हुकू़क़ व इख्ति़यार भी देने लगें जो उन्हें इस्लाम ने दिए हैं। शुक्र अदा कीजिए कि अभी तीन तलाक़ देना कानून की नज़र में जुर्म तय हुआ है अगर हमने खु़द को ठीक नहीं किया तो कल तलाक़ देने पर भी पाबंदी लगाई जा सकती है –
यह उज़रे इम्तिहाने जज्बे़ दिल कैसा निकल आया,
मैं इल्ज़ाम उसको देता था कु़सूर अपना निकल आया।
Writer: Kaleem-Ul-Hafeez Convenor: Indian Muslim Intellectual Forum