कलीमुल हफ़ीज़
मुल्क इस वक़्त जिन हालात से गुज़र रहा है वह इतनी चिंताजनक है कि शायद उसको बयान न करना ही बेहतर है। सत्ताधारी तबक़े के जो इरादे हैं वह अधिक चिंताजनक और ख़राबी की ओर इशारा कर रहे हैं। मुल्क के ये हालात यूं तो सभी देशवासियों के लिए ही अहितकारी हैं लेकिन मुसलमान सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं और आगे और भी ज़्यादा होंगे। इन हालात में आम तौर पर क़ौमों के सामने दो ही रास्ते होते हैं। एक रास्ता मायूसी का शिकार होकर आत्मसमर्पण कर देना और दूसरा रास्ता हालात के मुताबिक़ रणनीति बनाकर हालात को अपने अनुकूल बना लेना। पहला काम बहुत आसान है। उसके लिए कुछ करने की ज़रूरत नहीं बस जि़ल्लत सहने की आदत डालना पड़ती है। लेकिन दूसरा काम मुश्किल ज़रूर है मगर नामुमकिन नहीं है। पहले काम के नतीजे के लिए किसी इंतेज़ार की ज़रूरत नहीं, दूसरे काम के लिए लम्बे इंतेज़ार और सब्र की ज़रूरत है। मेरी नज़र में नीचे दिए जा रहे कुछ बिन्दुओं पर तुरन्त अमल शुरू किया जाए तो बीस से पच्चीस साल में सकारात्मक तब्दीली की उम्मीद है।
ईमान व अक़ाइद का जायज़ा लीजिए
सबसे पहली चीज़ एक मुसलमान के लिए उसका ईमान है। एक ममिन को असबाब की ज़रूरत होती है मगर वह असबाब का पाबंद नहीं होता। इस्लाम और मुसलमानों का इतिहास इस पर गवाह है। यहां ज़ंग खाई हुई कुछ तलवारों से 313 लोग 1000 को हरा देते हैं। यहां दरिया पार करके किश्तियां जला दी जाती हैं, यहां समंदर में घोड़े समेत पूरी फ़ौज कूद जाती है। यह केवल ईमानी कु़व्वत है जो मोमिन को तलवार के बग़ैर भी न केवल लड़ने की हिम्मत देती है बल्कि कामयाब भी करती है। हमें अपने ईमान का जायज़ा लेना चाहिए। अल्लाह पर ईमान का तक़ाज़ा है कि हमारी सारी उम्मीदों का वही मरकज़ हो, रसूल पर ईमान का असर हमारे अख़लाक़ से नुमायां हो, आखि़रत की जवाबदेही का तसव्वुर हमें ईमान के खिलाफ़ काम करने से रोकने के लिए काफी हो। जो इंसान अल्लाह से डरता है वह किसी से नहीं डरता। जो आदमी अपने अख़लाक़ में नबी के मॉडल को सामने रखता हो वह दुनिया वालों का ही महबूब नहीं आसमान वालों के लिए भी महबूब होता है।
‘इक़रा’ पर अमल कीजिए
मुस्लिम मिल्लत का ज़वाल माल व दौलत की कमी से नहीं बल्कि तालीम की कमी और अख़लाक़ की गिरावट से आया है। पहले ज़माने के मुसलमान हालांकि बहुत ज्यादा किताबों का इल्म नहीं रखते थे मगर वह नबी के मकतब से इल्म हासिल किए हुए थे, वो वहमो गुमान के बीच यक़ीन की शमा थे। मैंने तालीम के लिए ‘इक़रा’ का लफ्ज़ इस्तलाह, शब्दावली के तौर पर इस्तेमाल किया है, मुसलमानों के नज़दीक तालीम केवल अक्षरों या गिनती पहचानने का नाम नहीं है बल्कि यहां ‘खु़द की पहचान’ और ‘खु़दा की पहचान’ का नाम तालीम है। हमारे पास मदरसे, स्कूल, कॉलेज, मस्जिदें अच्छी तादाद में हैं, ज़रूरत इस बात की है कि स्कूल और कॉलेज ‘खु़दा की पहचान’ के इल्म को और मकतब व मदरसे ‘खु़द की पहचान’ की इल्म को अपने अपने सिलैबस में शामिल करें।
बाज़ार पर पकड़ बनाइए
रूपया पैसा, धन दौलत अल्लाह की नेमत है। इसे हासिल करने में मेहनत कीजिए। अपने कारोबार नये तक़ाजों के अनुरूप कीजिए। अपने काग़ज़ात अपडेट रखिए, कारोबार में एक दूसरे के सहायक बनिये। पैसा ख़र्च करने में भी एहतियात से काम लीजिए। फि़ज़ूलख़र्ची पर काबू पाइए। गै़र इस्लामी रस्मों को छोड़ दीजिए। बचत का मिज़ाज बनाइए। ऐसे कामों पर दिल खोल कर ख़र्च कीजिए जिसका अच्छा, पॉजि़टिव नतीजा निकलने वाला हो; मिसाल के तौर पर बच्चों की तालीम के सिलसिले में कोई समझौता मत कीजिए। अच्छी तालीम दिलाकर बच्चे कामयाब होंगे तो उनकी तालीम पर जो पैसा ख़र्च किया गया है वह एक साल में कमा कर दे देगा। आर्थिक मज़बूती बहुत ज़रूरी है। हम में से जो लोग मालदार हैं वह अपने ग़रीब और कमज़ोर दोस्तों व रिश्तेदारों को सहारा लगाएं और भीख मांगने वालों की हिम्मत न बढ़ाई जाए लेकिन ज़कात को बेअसर होने से बचाएं। ब्याजरहित-क़र्ज़ की स्कीम या इज्तिमाई ज़कात फण्ड क़ायम करके भी बेरोज़गारी दूर की जा सकती है।
सियासी कु़व्वत का हुसूल
आज़ादी के बाद सबसे ज़्यादा नुक़सान हमें सियासी मैदान में हुआ है। पिछले संसद सत्र में सेक्युलर पार्टियों के रवैये ने उम्मीद के सारे चिराग़ बुझा दिए हैं। अब हमें नए सिरे से चिराग़ जलाना होंगे। मेरा ख़याल है कि मुसलमान स्थानीय निकायों पर ज़्यादा तवज्जो दें, वहां सरकारी स्कीमों को ईमानदारी से लागू करें। मुल्क में सैकड़ों नगर पालिकाओं और हज़ारों ग्राम पंचायतों के मुखिया आज भी मुसलमान हैं मगर वह भी भ्रष्टाचार का शिकार हैं, वह भी दौलत जमा करने के चक्कर में तरक़्क़ी व खुशहाली की कोई पॉलीसी तैयार नहीं करते। अगर स्थानीय निकायों में हम खु़द को इंसानियत के लिए फ़ायदेमन्द साबित करें तो आगे के रास्ते भी खुल सकते हैं। विधानसभा व संसद के लिए अपनी क़यादत को खड़ा करने और मज़बूत करने की ज़रूरत है। हमारी सियासी लीडरशिप को भी अपना जायज़ा लेना चाहिए और देखना चाहिए कि उन्होंने मिल्लत के नुमाइंदे होने की हैसियत से क्या काम किए हैं?
औरतों को नज़रअंदाज़ मत कीजिए
आखि़र में एक गुज़ारिश यह कि हमारी औरतें जो आबादी का आधा हिस्सा हैं अर्थात् हमारा आधा सरमाया भी हैं और आधी ताक़त भी। उनको नज़रअंदाज़ करके हमारा भविष्य कभी रोशन नहीं हो सकता। हमारी तरक़्क़ी का इतिहास गवाह है कि हर समय, हर मंजि़ल, हर क़दम पर हमारी कामयाबी में औरतों ने अहम किरदार अदा किया है। औरतों के सरमाये की हिफ़ाज़त भी करनी है और उसे काम में भी लाना है। शिक्षित, डॉक्टर्स, टीचर्स औरतों की तादाद हालांकि आबादी के अनुपात में कम है लेकिन जो भी है उसको सलीक़े से मुस्तक़बिल की तामीर में लगाया जाए तो कामयाबी की जल्दी उम्मीद की जा सकती है।
यहां मैंने कुछ व्यवहारिक बिन्दु आपके सामने रखे हैं। ख़ुलूस, ईमानदारी और ईसार व कु़रबानी के जज़्बे से अगर इन बिन्दुओं की माइक्रो-प्लानिंग करके उन पर अमल किया गया तो हमारी आने वाली नस्लें नया भारत देखेंगी वरना उन्हें आज के म्यांमार और कल के भारत में अंतर करना मुश्किल हो जाएगा।
जहां में अहले ईमां सूरते ख़ुर्शीद जीते हैं,
उधर डूबे इधर निकले इधर डूबे उधर निकले।
Writer: Kaleem-Ul-Hafeez Convenor: Indian Muslim Intellectual Forum