दिल्ली में आम आदमी की पाँच साला कारकर्दगी को देखते हुए ऐसा लग रहा था कि अरविन्द जी बहुत आसानी से तीसरी बार मुख्यमन्त्री बन जाएँगे। मगर ज्यों-ज्यों इलेक्शन क़रीब आ रहा है ये रास्ता मुश्किल होता जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि आप की हुकूमत में आम आदमी के लिये जितने काम हुए उतने पिछले सत्तर साल में नहीं हुए। तालीम, सेहत, बिजली, पानी से लेकर बसों में ख़्वातीन के मुफ़्त सफ़र का सीधा-सीधा फ़ायदा आम आदमी बल्कि ग़रीब आदमी को पहुँचा है। सबसे बड़ी बात ये है कि सेक्युलरिज़्म मज़बूत हुआ है। हुकूमत के किसी मन्त्री की तरफ़ से मज़हबी मुनाफ़रत, इलाक़ाई पक्षपात और भेदभाव की सियासत नहीं की गई है। इसके बावजूद भी जीत का रास्ता आसान नहीं है। इसका मतलब ये है कि आम जनता का सियासी शुऊर अभी बेदार नहीं हुआ है। जनता भारतीय जनता पार्टी के झूट और फ़रेब का शिकार है। बी जे पी ने CAA मुख़ालिफ़ प्रदर्शनों को तनक़ीद का निशाना बनाकर हुकूमत को असमंजस में डाल दिया है वो गले की हड्डी बन गया है। शाहीन बाग़ की हिमायत ग़ैर-मुस्लिम वोटरों को दूर कर रही है तो उसकी मुख़ालिफ़त से मुस्लिम वोटरों के नाराज़ होने का इमकान है।
शाहीन बाग़ का प्रदर्शन मुल्क के लिए एक अलामत और प्रतीक बन गया है। बग़ैर किसी कामयाबी के इसका ख़त्म होना CAA मुख़ालिफ़ पूरी तहरीक के लिये नुक़सानदेह है। पचास रोज़ से जारी मुज़ाहिरा अगर यूँ ही ख़त्म कर दिया गया तो हमारी ख़्वातीन की मेहनतों पर पानी फिर जाएगा। इसलिये प्रदर्शन उस वक़्त तक जारी रहना चाहिये जब तक कि हुकूमत काले क़ानून को वापस न ले ले या फिर अदालत का कोई फ़ैसला आए। बी जे पी के लीडर शाहीन बाग़ को जिस तरह निशाना बना रहे हैं उससे लगता है कि उन्होंने आज के दिन के लिये ही इस प्रदर्शन को जारी रहने दिया था। उनके लीडरों के बयान का यही मतलब निकलता है। दिल्ली में पुलिस का निज़ाम मरकज़ की बी जे पी की हुकूमत के हाथों में है। उसी पार्टी की उत्तर प्रदेश हुकूमत ने प्रदर्शनकारियों पर जो ज़ुल्म व सितम किया वो भी हमारे सामने है, फिर क्या वजह है कि दिल्ली में प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ ताक़त इस्तेमाल नहीं की गई, उसे समझने की ज़रूरत है।
दिल्ली के इलेक्शन को CAA की हिमायत और मुख़ालिफ़त से जोड़कर नहीं देखना चाहिये। पार्लियामेंट में वोटिंग के वक़्त आम आदमी पार्टी ने CAA की मुख़ालिफ़त में वोट डालकर अपना पक्ष वाज़ेह कर दिया है, पार्टी के मन्त्री और मुख्यमन्त्री सहित ने मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर CAA पर सवालात खड़े किये हैं। इसलिये प्रदर्शनकारियों को वोट देते वक़्त सरकार के पाँच साल के मजमूई रवैये का ख़याल रखना चाहिये। हमें ये बात नहीं भूलना चाहिये कि दिल्ली के इलेक्शन पर ही इस काले क़ानून के बाक़ी रहने या ख़त्म होने का दारोमदार है। अगर दिल्ली इलेक्शन में फासीवादी ताक़तों की बुरी हार होती है तो उसके लिए कोई जाएपनाह नहीं मिलेगी। इसी तरह अगर उसे ख़ुदा न ख़्वास्ता हमारी जज़्बाती सियासत से फ़तह मिलती है तो फिर प्रदर्शनकारियों के लिए कोई जाएपनाह नहीं मिलेगी। हमें ये भी देखना चाहिये कि कांग्रेस के लिये सिर्फ़ वही पाँच सीटें जीतना मुमकिन है जो मुस्लिम अक्सरियत वाली हैं, बाक़ी सीटों पर तो सीधा मुक़ाबला आप और बी जे पी में ही है। मुझे कांग्रेस से पूरी हमदर्दी है। मैं मरकज़ में उसकी वापसी की तमन्ना करता हूँ लेकिन दिल्ली असेम्बली में उनकी बराए नाम मौजूदगी को मुनासिब नहीं समझता।
ये बात अब दो और दो चार की तरह साफ़ हो गई है कि फ़िरक़ा-परस्त ताक़तें मुल्क को खुली तबाही की तरफ़ ले जा रही हैं। वो जिस तरह अपने फासीवादी इरादों को पूरा करने के लिये क़दम उठा रही है और उसके लीडर जिस तरह की ज़बान का इस्तेमाल कर रहे हैं, सही बात ये है कि वो किसी के लिये फ़ायदेमन्द नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद मुल्क में गगनचुम्बी राम मन्दिर की तामीर पर किसी को एतिराज़ नहीं, गाय की हिफ़ाज़त और परवरिश पर मुल्क का सरमाया ख़र्च हो उस पर भी कोई शिकायत नहीं, गंगा की सफ़ाई और गंगा यात्रा से भी किसी को परेशानी नहीं, लेकिन गोड़से के हक़ में नारे और गाँधी जी की तौहीन को कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। मुल्क में मज़हबी मुनाफ़रत पर आधारित क़ानून बनाना डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर की तौहीन नहीं तो और क्या है। मुल्क में वेद और रामयण के पाठ से हमें क्या सरोकार? हमें तो सरकार के उन फ़ैसलों से शिकायत है जो वो मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम के नाम पर कर रही है। बेरोज़गारी, भुखमरी, मँहगाई क़ाबिल बर्दाश्त है मगर इन्सानों में नफ़रत को बर्दाश्त करना इन्सानियत को ख़त्म करने के बराबर है। इसलिये दिल्ली का इलेक्शन बहुत अहम् है, ये इलेक्शन मुल्क के मुस्तक़बिल को तय करेगा। ये सिर्फ़ एक अपूर्ण राज्य का इलेक्शन नहीं है बल्कि गाँधी के नज़रियात के लिये मौत का इलेक्शन है। पिछले एक साल में बी जे पी ने जिस तरह राज्यों में अपनी सत्ता गँवाई है उससे वो बौखलाहट का शिकार है, वो हर क़ीमत पर दिल्ली को जीतना चाहती है।
इसलिये हमारे शुऊर, हमारी अक़ल और जज़्बात का इम्तिहान है। ये इलेक्शन दिल्ली और दिल्लीवालों की क़िस्मत तय करेगा। ये बात हर शख़्स जानता है दिन के सूरज की तरह प्रकाशमान है कि अगर सेक्युलर वोट कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में तक़सीम हुआ तो बी जे पी का रास्ता साफ़ हो जाएगा। मुसलमानों ने हमेशा मुल्क की हिफ़ाज़त, उसकी सलामती और उसकी बक़ा के लिये वोट दिया है। हिन्दुस्तान की जम्हूरी तारीख़ गवाह है कि कभी और किसी इलेक्शन में भी मुसलमानों ने मुतालबों और माँगों की राजनीति नहीं की। “कुछ लो और कुछ दो” की पॉलिसी नहीं अपनाई। उन्होंने हर इलेक्शन में मुल्क के मफ़ाद (हितों) को सामने रखा है। मुसलमान अगर बी जे पी को नापसन्द करता है तो सिर्फ़ इसलिये कि उसकी पॉलिसियाँ मुल्क दुश्मन हैं, उसने अगर उत्तर प्रदेश और बिहार में इत्तिहाद को वोट दिया है तो उसकी वजह ये नहीं है कि इत्तिहाद ने अपने मेनिफफ़ेस्टो में मुसलमानों से कोई बड़े वादे किये थे, बल्कि सिर्फ़ इसलिये कि ये इत्तिहाद मुल्क दुश्मनों को शिकस्त देने की ताक़त रखता है। मुसलमान अगर कहीं कांग्रेस को वोट करता है तो ये जानते हुए करता है कि आज इस मुल्क में मुसलमानों की हालते-ग़ैर की ज़िम्मेदार भी कांग्रेस है।
दिल्ली में वोटर्स के लिये ‘आप’ एक बेहतरीन विकल्प है। ‘आप’ की हिमायत में इसलिये नहीं कर रहा हूँ कि उसने अपने पाँच साला इक़्तिदार में मुसलमानों को कुछ दे दिया है। बल्कि इसलिये कर रहा हूँ कि इसकी क़ियादत फ़िरक़ा-परस्ती, ज़ात-पात, और मज़हबी भेदभाव की सियासत नहीं करती। वो मन्दिर मस्जिद और गुरुद्वारे में तफ़रीक़ नहीं करते, बल्कि वो तालीम और सेहत और रोज़गार के इशूज़ पर काम कर रहे हैं। दिल्ली के लोग इस बात को तस्लीम करें या न करें कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों और अस्पतालों में सुधार आया है। आधी-अधूरी हुकूमत और मरकज़ी हुकूमत की जानिब से मुस्तक़िल परेशान किये जाने के बाद भी तालीम और सेहत के मैदानों में नुमायाँ काम हुए हैं। हम जानते हैं कि तालीम और सेहत इन्सान की बुनियादी ज़रूरतें हैं। नालों और सड़कों की तामीर से ज़्यादा नई नस्ल की तामीर का काम है। ये हो सकता है कि हमें ‘आप’ से शिकायतें हों। उसके किसी उम्मीदवार से कोई तकलीफ़ पहुँची हो, लेकिन ये वक़्त शिकवे शिकायत या ज़ाती तकलीफ़ों के हिसाब का वक़्त नहीं है। बल्कि मुल्क में संविधान और क़ानून की बालादस्ती की हिफ़ाज़त और क़ायम करने का वक़्त है।
एक-एक वोट की अहमियत है। दुश्मन ने आपस में जंग कराने के सारे इन्तिज़ाम कर दिये हैं। ज़मीर फ़रोश और ईमान फ़रोश भी सरगर्म हैं मगर आपको सिर्फ़ ज़मीर की आवाज़ पर वोट देना है। मुसलमानों ने हर आड़े वक़्त में मुल्क की हिफ़ाज़त की है। ज़रूरत पड़ने पर वो अपनों से भी लड़ा है। पानीपत का मैदान उसका गवाह है। उसने वीर अब्दुल-हमीद और ब्रिगेडियर उस्मान की सूरत में सरहद पर दुश्मन के टेंक अपनी जान पर खेल कर उड़ाए हैं। आज फिर मुल्क का सवाल है। मुल्क की तबाही की दास्तान सबके सामने है। फ़िरक़ा-परस्ती का ज़हर रग-रग में सरायत कर रहा है, बेरोज़गारी में हर रोज़ बढ़ोतरी हो रही है, मुल्क का सरबराह झूट, मक्कारी, फ़रेब से काम ले रहा है। ऐसे हालात में दिल्ली और दिल्लीवालों की तरफ़ सब की निगाहें हैं।
कलीमुल हफ़ीज़
जामिया नगर, नई दिल्ली