हमारा मुल्क अनेकता में एकता की मिसाल था। यहाँ आपसी सौहार्द का नज़रिया था कि ‘जियो और जीने दो’। हमारा सेक्युलरिज़्म भी दुनिया में एक मिसाल था जिसकी वजह से तमाम धर्म आज़ाद थे और उनमें सद्भावना का रिश्ता था। यहाँ ईद और होली के त्यौहार एक साथ मनाए जाते थे। यहाँ गाँव में ‘छप्पर’ उठाने में हिंदू मुसलमान एक साथ थे। एक हुक्के की ‘नाली’ से तमाम लोग ‘कश’ लगाते और ज़िंदगी का मज़ा उठा लेते थे। हमारा दिल भी बड़ा था और दस्तरख़्वान भी। यही वजह है कि यहाँ जो भी आया वह यहीं का होकर रह गया। यहाँ श्रीरामचंद्र जी के मानने वालों ने हज़रत मुहम्मद ﷺ का नाम लेने वालों का स्वागत किया था। यहाँ ख़्वाजा गरीब नवाज़ थे, जिनके दरबार में सब समान थे। यहाँ निज़ामुद्दीन औलिया थे, जिनके दस्तरख़्वान पर सब एक साथ बैठकर खाना खाते थे।
मगर आज़ादी के आंदोलन की आड़ में एक ऐसी तहरीक ने भी जन्म लिया जिसके सदस्य नस्लपरस्ती का शिकार थे, जिसके मुताबिक़ इंसान पैदायशी तौर पर छोटा और बड़ा होता है। जिसके नतीजे में यहाँ ऊँच-नीच का अंतर होने लगा, आहिस्ता आहिस्ता असली और नक़ली राष्ट्रवाद का बिगुल बजाया गया। एक कल्चर और एक ज़ुबान का राग छेड़ा गया, दिल तंग हो गए, NRC का देव आ गया और लोग अपने ही मुल्क में बिन बुलाए मेहमान बना दिए गये। वही धरती माँ जिसने आर्यों, मुसलमानों और अंग्रेज़ों का स्वागत किया था उसी धरती माँ का दामन सिमट गया। विभाजन/तफ़रीक़ और नफ़रत की सियासत ने मॉब लिंचिंग के नाम पर सैंकड़ों इंसानों का कत्ल करा दिया। इंसानों की भीड़ ने अपने ही जैसे इंसानों के साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया। हमारे बड़े दिल और सौहार्द की रीति मुँह देखते रह गई। प्रेमचंद की कहानियों के सच्चे किरदार मुँह छिपाने लगे। आख़िर जिस मुल्क की मिसाल भाईचारे, धैर्य और अहिंसा के लिए दी जाती थी वही मुल्क अब नफ़रत, विभाजन और हिंसा की पहचान बन गया।
कोई मुल्क अपनी सरहदों से नहीं अपने रवय्यों से पहचाना जाता है मुल्क की तस्वीर उसके आवाम के अख़लाक़ और माली सूरतेहाल से बनती और बिगड़ती है इस वक़्त सूरतेहाल ये है कि सरकारी कम्पनियां सरकार की बेवफ़ाई के कारण बंद हो रही हैं। सालाना दो करोड़ नौकरियां देने का वादा करने वाले अब तक करोड़ों लोगों को बेरोज़गार कर चुके हैं।हर शख़्स के अकाउंट में 15 लाख भेजने की बजाय, देश के बैंक डूब रहे हैं और लोगों को अपनी ही रक़म निकालने के लिए लाले पड़ रहे हैं, रुपया की क़ीमत कम होती जा रही है, GDP भी पाँच फ़ीसद से कम हो गई है, नोट बंदी और GST की ग़लत नीति के कारण कारोबार ठप्प होकर रह गये हैं।
आज़ादी के बाद से ही यूँ तो मुल्क के विभिन्न भागों में मुसलमानों पर ज़ुल्म व सितम का बाज़ार गरम किया जाने लगा। मगर ख़ासतौर पर कश्मीर में पिछले 30 सालों से आग और ख़ून का खेल जारी है। एक लाख इंसानों से ज़्यादा लोग क़त्ल किए गये, हज़ारों महिलाओं की इज़्ज़तें लूटी गईं। मगर वर्तमान सरकार ने 5,अगस्त 2019 को इंसानियत, लोकतंत्र और संविधान की जो धज्जियाँ बिखेरी हैं उसने मुल्क की छवि को बहुत ख़राब कर दिया है। उस पर संयुक्त राष्ट्र में सरबराहों की तक़रीर और विदेशी मीडिया के बड़े अखबारों का हिंदोस्तान के संबंध में Lock Down और Blood Bath के अंदेशों को उजागर करने ने मुल्क की तस्वीर को और भी ख़राब किया है। कश्मीर दुश्मनी में हम यह भी भूल गए कि मुस्लिम दुनिया से देश को कई बड़े फायदे हैं। लगभग एक करोड़ तीस लाख से अधिक भारतीय नागरिक मुस्लिम देशों में रोज़गार और नौकरी कर रहे हैं और लाखों करोड़ विदेशी करेंसी के रूप में देश को मिल रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार सऊदी अरब में 41 लाख, अरब अमीरात में 35 लाख, मलेशिया में 21 लाख, कुवैत और क़तर में 14 लाख भारतीय नागरिक काम कर रहे हैं। शेष अन्य मुल्कों में भी अच्छी बड़ी तादाद में कार्यरत हैं। वर्ल्ड बैंक की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार कुल 429 बिलियन डॉलर (30,46,000/- करोड़ रूपये) जो हमारे देश का विदेशी मुद्रा भंडार है उसमें 79 बिलियन डॉलर Foreign Exchange Currency (5,60,900/-करोड़ रूपये विदेशी मुद्रा) केवल NRI की तनख़्वाह और मज़दूरी के तौर पर मुल्क को हासिल हुए, उसमें 67% (3,75,800/- करोड़ रूपये) मुस्लिम दुनिया के केवल पांच देशों सऊदी अरब, कुवैत, क़तर, बहरीन और बंगलादेश से हासिल हुए। ट्रंप बहादुर जिसकी मुहब्बत में हम सारी मान मर्यादाओं को भूल गए हैं, यहां तक कि अमेरिका को भी दिल्ली का रामलीला मैदान समझकर हमने नारा लगा दिया ”अबकी बार ट्रम्प सरकार” और यह नहीं सोचा कि ट्रंप के विरोधी अगर जीत गए तो क्या होगा? वहां से केवल 17% और इंग्लैण्ड जिसकी नक़ल करना हमारे लोग गर्व समझते हैं, वहाँ से केवल 5% विदेशी मुद्रा हासिल हुई है।
दुनिया में हम जो चीज़ें एक्स्पोर्ट करते हैं उसकी बड़ी मण्डी भी मुस्लिम देश ही उपलब्ध कराते हैं। एक ध्यान देने वाली बात यह है कि पश्चिमी देशों में जो लोग गए वह या तो वहीं के होकर रह गए और अगर वहां के शहरी न भी बन सके तो उन्होंने अपनी दौलत का मामूली हिस्सा ही भारत भेजा। जबकि मुस्लिम देशों में जो लोग गए हैं वह उन देशों के नागरिक नहीं बने और उनकी सौ प्रतिशत दौलत भारत आई। यह बात भी अहम है कि पश्चिमी देशों में हमारे देश का ज़हीन और उच्च शिक्षित वर्ग पहुंचा जबकि मुस्लिम देशों ने हमारे मज़दूरों को गले लगाया। इन आंकड़ों से मालूम होता है कि मुल्क की पहचान बिगड़ने से हमारी अर्थ व्यवस्था पर बुरे असरात पड़ सकते हैं और दूसरी ओर एक करोड़ तीस लाख भारतीय नागरिकों के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती हैं। हमारी सरकार ने इज़राईल की दोस्ती में जिस सांप्रदायिक दृष्टिकोण को अपनाया है उसे यह भी देखना चाहिए कि इज़राईल पर कितने खतरों के बादल मंडराते हैं कोई इज़राईली मुस्लिम देशों में बिना सिक्योरिटी के यात्रा नहीं कर सकता क्योंकि इज़राईल ने फ़िलिस्तीनी मुसलमानों को जो ज़ख़्म दिए हैं उनकी तकलीफ़ दुनिया का हर मुसलमान महसूस करता है। भारत के प्रधानमंत्री अरब देशों में इनामों के मिलने से फूले न समाएं क्योंकि भारतीय नागरिकों का संबंध वहां के हुक्मरानों से नहीं बल्कि आम जनता से पड़ता है। कश्मीर में हमारे अमानवीय बरताव और असंवैधानिक फै़सले ने पड़ौसी मुल्क को हमारे ख़िलाफ बोलने और माहौल बनाने का मौक़ा दे दिया है। पश्चिमी देशों ख़ासतौर पर मुस्लिम देशों की अवाम कश्मीर पर हमारे फै़सलों को बड़ी बारीकी से देख रही है। हिंदोस्तान में मुसलमानों को तकलीफ़ पहुंचाकर बाक़ी दुनिया के मुसलमानों को भी हम तकलीफ़ पहुंचा रहे हैं। ज़ाहिर है कि अगर यह तकलीफ़ प्रतिक्रिया के तौर पर उजागर हुई तो हमारे लिए मुश्किल खड़ी कर देगी।
मुल्क के हाकिमों को अपने फाशिस्ट रवैये को छोड़कर भारत की बेहतरीन तहज़ीबी रिवायात और अपने ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के नारे का मान-सम्मान रखना चाहिए। 70 सालों में दुनिया में हमारे देश को जो हैसियत हासिल हुई थी उसे गिरने से बचाना चाहिए। जनता में भेद-भाव किसी भी सत्ताधारी सरकार के लिए घातक साबित होता है। अपने देशवासियों को खुशियां दीजिए। उनकी आंख के आँसू साफ़ कीजिए वरना एक भी आँसू सैलाब का रूप धारण कर सकता है-
एक आँसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है,
तुमने देखा नहीं आंखों का समंदर होना।
कलीमुल हफ़ीज़
कन्वीनर, इंडियन मुस्लिम इंटेलेक्चुअल्स फ़ोरम, जामिया नगर, नई दिल्ली-25