कलीमुल हफ़ीज़
मुल्क में बढ़ती आबादी पर प्रधानमंत्री की चिंता उचित है
हमारे प्रधानमंत्री ने इस बार यौमे आज़ादी पर लाल-क़िले की दीवार से राष्ट्र को संबोधित करते हुए जहां बहुत सी अच्छी बातें कीं वहीं उन्होंने मुल्क में बढ़ती हुई आबादी को ‘जनसंख्या विस्फोट’ से परिभाषित किया है। प्रधानमंत्री देश के मुखिया हैं, उन्हें देशवासियों की चिंता करनी चाहिए। जिस तेज़ी से देश की आबादी बढ़ रही है वह इस पहलू से चिंतनीय है कि देश की अर्थव्यवस्था जिस प्रकार डांवाडोल है उसकी रोशनी में देशवासियों को ज़िंदगी गुज़ारने के लिए अच्छी क़िस्म की सहूलतें उपलब्ध कराना मुश्किल हो जाएगा। आने वाली नस्लों की तालीम और सेहत को लेकर प्रधानमंत्री की चिंता बेहतर प्लानिंग का इशारा दे रही है।
मुल्क में आबाद विभिन्न समुदायों का जायज़ा बताता है कि आबादी में बढ़ोत्तरी का प्रतिशत आमतौर पर अनपढ़, ग़रीब और जनजातियों में ज़्यादा है। एक अनपढ़ आदमी की सोच सीमित होती है, वह भविष्य की चुनौतियों से अन्जान होता है, उसे मुल्क के हालात की कोई ख़बर भी नहीं होती, फिर वह गर्भ निरोध के माध्यमों से भी अन्जान होता है इसलिए वह आबादी में बढ़ोत्तरी करता चला जाता है। दूसरा वर्ग ग़रीब है, ग़रीब इंसान आमतौर पर अनपढ़ भी होता है। गरीब के नजदीक औलाद, ऊपर वाले की रहमत होती है। ग़रीब के नज़दीक औलाद खु़द एक धन, सरमाया है। वह इस धन, सरमाए से ही अपने घर ख़ानदान की जि़म्मेदारी उठाता है। बाक़ी रही़ जनजातियां, तो उनके यहां औलाद की अधिकता के साथ शादियों की भी अधिकता है। उनकी अपनी संस्कृति और रस्में हैं, जिसके तथ्यों के लिए जनगणना की रिपोर्टें देखी जा सकती हैं।
इस विश्लेषण से यह बात मालूम होती है कि आबादी पर कंट्रोल करने के लिए ज़रूरी है कि देशवासियों में तालीम आम हो, बेरोज़गारी दूर हो, दौलत की तक़्सीम मुंसिफा़ना हो और आर्थिक मज़बूती हो। उम्मीद है कि प्रधानमंत्री ने जिस प्रकार और जिस हमदर्दी के लहजे में जनसंख्या पर चिंता ज़ाहिर की है उसी हमदर्दी के लहजे और तरीक़ेकार के माध्यम से उसका हल भी पेश करेंगे।
देश में आबादी में बढ़ोत्तरी की बात जब भी की जाती है उसे सियासी रूप दे दिया जाता है, जबकि यह राष्ट्रीय समस्या है। आबादी में बढ़ोत्तरी की तान मुसलमानों पर टूटती है, हिन्दू आबादी को मुस्लिम आबादी का ख़ौफ़ दिलाया जाता है। जबकि सांख्यिकी के विद्वान बताते हैं कि हिंदूओं के मुक़ाबले मुसलमानों की आबादी में बढ़ोत्तरी के प्रतिशत में गिरावट रिकॉर्ड की गई है। 2001 और 2011 के बीच मुस्लिम आबादी बढ़ोत्तरी में 5 प्रतिशत की कमी हुई और हिंदुओं में केवल 3 प्रतिशत की कमी हुई। इसका मतलब है कि परिवार नियोजन के असरात मुसलमानों ने भी स्वीकार कर लिए हैं।
मैं इस बहस को मज़हबी दृष्टिकोण से पेश नहीं करना चाहता लेकिन इतनी बात ज़रूर कहूंगा कि कोई भी आसमानी दीन संसाधनों की कमी और भोजन के डर से बच्चों के जन्म पर कंट्रोल की हिमायत नहीं करता। औरत या बच्चों की सेहत के लिए एहतियात के तौर पर बात करने की बात हर अक़्लमंद की समझ में आती है। लेकिन दंपत्ति के लिए बच्चों की कोई संख्या तय करना इसलिए उचित नहीं है क्योंकि हम बांझ औरतों को औलाद नहीं दे सकते। हम किसी को निर्धारित आयु तक जि़ंदा रहने की ज़मानत नहीं दे सकते, हम कु़दरती आफ़तों पर कंट्रोल नहीं रख सकते, हम न मौत से छुटकारा पा सकते हैं न मौत के फ़रिश्तों पर क़ाबू पा सकते हैं।
आबादी पर कंट्रोल के लिए प्राकृतिक माध्यमों का तो प्रयोग किया जा सकता है लेकिन अप्राकृतिक माध्यमों को अपनाने से बचना चाहिए क्योंकि जिन देशों ने अप्राकृतिक तरीक़ा अपनाया उनको इसका नुकसान भुगतना पड़ा। उनके यहां औरतों के साथ यौन दुराचार और बलात्कार की घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ। जनरेशन-गेप के द्वारा बूढ़ों की संख्या बढ़ी और वृद्धाश्रमों बनाने पड़े, क्राइम में बढ़ोत्तरी हुई। गर्भनिरोधक दवाओं से स्वास्थ्य पर कुप्रभाव हुए, लाइलाज बीमारियां पैदा हुईं. अविवाहित माएं और नाजायज़ बच्चों की संख्या स्वयं एक मसला बन गई। अमेरिका में इस समय 10 लाख से अधिक ऐसे बच्चे हैं जिनको अपने बाप का नाम तक नहीं मालूम। आखि़र उन देशों ने इन बदतरीन नतीजों के बाद अपनी पॉलिसियों में बड़े परिवर्तन किए। आबादी में बढ़ोत्तरी के लिए मुहिम चलाईं। बच्चे पैदा कराने को न केवल प्रात्साहित किया गया बल्कि सहूलियात और इनाम भी दिए गए। इन देशों में बर्तानिया, फ्रांस,जर्मनी, हालैण्ड और अमेरिका शामिल हैं। इन सबकी रिपोर्टें इंटरनेट पर मौजूद हैं और उनका अध्ययन भी किया जा सकता है।
आबादी के मसले को एक दूसरे दृष्टिकोण से भी समझने की ज़रूरत है। क्या आबादी में बढोत्तरी बेरोज़गारी और भुखमरी में बढोत्तरी का कारण है? क्या देश में निर्धनता इस वजह से है कि यहां आबादी ज़्यादा है? मेरी राय में यह एक ग़लत धारणा मात्र है। क्या यह सच नहीं कि आज़ादी के बाद के दो दशकों तक हम खाद्य पदार्थ आयात करते थे? जबकि कुल आबादी 56 करोड़ 36 लाख थी। आज आबादी 135 करोड़ यानी दोगुनी से भी ज़्यादा है और बहुतसी खाद्य सामग्री हम निर्यात कर रहे हैं। क्या यह सच नहीं है कि आज मध्मय वर्ग को वे सहूलियात हासिल हैं जो आज से दो सौ साल पहले बादशाहों को भी मयस्सर नहीं थीं। क्या यह बात हम भूल जाते हैं कि मुल्क के कुल क्षेत्र का लगभग दो तिहाई भाग आज भी प्रयोग में नहीं आता है और हम क्यों भूल गए हैं कि वही खेत जो पचास साल पहले अपने किसान का पेट भी मुश्किल से भर पाता था आज उसी खेत के इज़ाफ़ी ग़ल्ले के लिए कोल्ड स्टोरेज बनाए गए हैं। आज ज़मीन ख़ज़ाने उग़ल रही है, आसमान पानी बरसा रहा है। बड़े शहरों में जब ज़मीन तंग हो गई तो आसमान ने अपनी बाहें फैला दीं। यह आसमान को चूमती इमारतें उसी का सबूत हैं। इससे मालूम होता है कि आबादी के तनासुब से कहीं ज़्यादा संसाधनों में बढोत्तरी हुई है। मेरा ख़याल है कि बढ़ती हुई आबादी तो एक मसला है ही लेकिन उससे ज़्यादा हमारे मुल्क का भ्रष्ट सिस्टम मसलों का ज़्यादा जि़म्मेदार है।
सियासी बाज़ीगर यह संदेह भी जताते हैं कि अगर दूसरे वर्ग की आबादी बढ़ जाएगी तो सत्ता में परिवर्तन हो जाएगा और आज के शासक कल के ग़ुलाम हो जाएंगे। हालांकि मुसलमानों ने इस मुल्क पर एक हज़ार साल हुकूमत की और वह हमेशा अल्पसंख्यक रहे, अंग्रेज़ डेढ़ सौ साल हुकूमत कर गए और कुछ हज़ार की तादाद में रहे। आज भी जिस वर्ग की हुकूमत है उसे कुल आबादी में दस प्रतिशत इंसानों की भी हिमायत हासिल नहीं है। सत्ता और शासन का संबंध क़ौमों की संख्या से नहीं बल्कि उनके व्यवहार व कार्यों से होता है।
हर बच्चा जो पैदा होता है वह एक पेट ही नहीं दो हाथ, दो पांव और दिमाग़ भी लेकर आता है। इंसान खुद एक सरमाया है। मेरी राय है कि परिवार नियोजन को हर इंसान के विवेक पर छोड़ देना चाहिए। हर इंसान को अपनी आर्थिक स्थिति, आजीविका, अपनी सेहत और मौजूदा संसाधनों को देखते हुए अपने परिवार के भविष्य की प्लानिंग करना चाहिए। हर आदमी चाहता है कि उसकी औलाद का भविष्य बेहतर हो। स्पष्ट है कि भविष्य को बेहतर बनाने में इंसान की आर्थिक स्थिति बहुत अहम रोल अदा करती है। मेरा ख़याल है कि जब बिना किसी क़ानून बनाए आबादी में गिरावट आ रही है तो फिर क़ानून बनाने की ज़रूरत नहीं है। इसके बजाय तालीम को आम करने, रोज़गार के अवसर बढाने, दौलत की मुंसिफाना तक़्सीम, और कुप्रबंध को दूर करने, गैर-आबाद और बंजर इलाक़ों को आबाद करने एवं नए शहर बसाने, संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल और नए संसाधनों की तलाश में अपनी योग्यताएं लगानी चाहिएं। वरना-
अभी क्या है कल इक इक बूंद को तरसेगा मैख़ाना,
जो अहले ज़र्फ़ के हाथों में पैमाने नहीं आए।
Writer: Kaleem-Ul-Hafeez Convenor: Indian Muslim Intellectual Forum