कलीमुल हफ़ीज़

भारत में मुसलमानों की तादाद और अनुपात को सब जानते हैं। आम मुसलमान अपनी तादाद पर फ़ख़्र करते हुए समझता है कि उसे भारत से कौन निकाल सकता है? हालाँकि जब बुरा वक़्त आता है तो साया भी साथ छोड़ देता है। इन्सानी तारीख़ इस की गवाह है। हमारे देश की सरहद पर म्यांमार है जो मुस्लिम सल्तनत का हिस्सा था, वहाँ से जब रोहिंगिया भगाए गए तो आधे से ज़्यादा समन्दर में डूब कर मर गए। आज भी लाखों रोहिंगिया मुसलमान कई देशों में जिलावतनी (निष्कासन) की ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। क़ौमें उरूज और ज़वाल दोनों मरहलों से गुज़रती हैं। मगर ये सब ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव हैं। ये कायनात के बनानेवाले की मर्ज़ी और इन्सानी कारनामों के मुताबिक़ होता है। दिल हारकर बैठने की ज़रूरत नहीं, अलबत्ता ज़रूरत इस बात की है कि हम अपने इतिहास से सबक़ लेकर मुस्तक़बिल को रोशन करें।
भारतीय मुसलमान इस वक़्त ख़ुद को बन्द गली में महसूस कर रहे हैं, हालाँकि ये सिर्फ़ उनका एहसास है, वरना इनके लिये पहले से ज़्यादा रास्ते खुले हुए हैं। वो समझ रहे हैं कि मौजूदा हालात उन्हें पीछे की तरफ़ ले जा रहे हैं, लेकिन वो ये नहीं समझ रहे हैं कि कभी-कभी पीछे हटना आगे बढ़ने की तैयारी बन जाती है। मगर इसके लिये ज़रूरी है कि पीछे हटने के एहसास के साथ-साथ आगे बढ़ने का हौसला भी होना चाहिए। आज़ाद भारत में मुस्तक़बिल की प्लानिंग से बेफ़िक्र तबक़े को अब अपने वजूद को बचाने और अपने मुस्तक़बिल को महफ़ूज़ करने की फ़िक्र जाग उठी है। ख़ास तौर पर जबसे देश पर फासीवादी मानसिकता के लोग सरकार में आए हैं तब से ही मिल्लत का दूरदर्शी वर्ग मिल्लत के मुस्तक़बिल के लिये न सिर्फ़ फ़िक्रमंद हो गया है, बल्कि उसने कुछ बुनियादी काम भी शुरू कर दिये हैं, जिनके नतीजे आनेवाले दस से बीस सालों में नज़र आने लगेंगे। इन हालात की ही देन है कि मुस्लिम नौजवान क़ाबिले-ज़िक्र तादाद में मुक़ाबला-जाती इम्तिहान (Competative Exams) में नज़र आने लगे हैं। ये आगे बढ़ना अगर इसी तरह जारी रहे और इसमें तेज़ी और फैलाव आए तो नतीजे अच्छे और जल्द आएँगे। 2020 में कोरोना महामारी के बावजूद मेडिकल के लिये ख़ासी तादाद में मुस्लिम स्टूडेंट्स ने क्वालिफ़ाई किया है।

भारत की मौजूदा सरकार हालाँकि अपने एजेंडे यानी हिन्दुत्व के प्रोमोशन का काम कर रही है और इसका मक़सद बहुत जल्द या कुछ दिनों बाद हिन्दुत्व की हुकूमत क़ायम करना है, इसके बावजूद देश संविधान के अनुसार, जब तक कि ये संविधान बाक़ी है, मुसलमानों पर बहुत-से दरवाज़े खुले हुए हैं। इस हक़ीक़त से इनकार नहीं कि बहुत-से दरवाज़े बन्द भी हो रहे हैं या गलियाँ तंग हो रही हैं लेकिन जो रास्ते हमवार हैं और जो दरवाज़े खुले हुए हैं उन्हें खुला रखा जाना चाहिये। इन खुले रास्तों और खुले दरवाज़ों में सबसे बड़ा रास्ता और दरवाज़ा तालीम का है।

ये सच है कि भारतीय मुसलमानों के साथ कुछ सरकारी छूट और सर्विसेज़ में पक्षपात का रवैया अपनाया जाता है, लेकिन स्कूल-कॉलेज के दरवाज़े उनपर भी आम नागरिकों की तरह खुले हुए हैं। केन्द्र सरकार की कई स्कीमें माइनॉरटी के लिये हैं। लेकिन भारतीय मुसलमानों को सरकारी नौकरियों को हासिल करने में पक्षपात की शिकायत रही है, जिसकी वजह से उसने तालीम हासिल करना ही छोड़ दी। ये सवाल किया जाने लगा कि जब नौकरी नहीं तो तालीम क्यों हासिल की जाए। यही वो ग़लती है जो आज़ादी के बाद से ही मुसलमान कर रहे हैं। इनकी समझ में ये नहीं आता कि तालीम और नौकरी दो अलग-अलग इशूज़ हैं। किसी देश के लिये भी ये सम्भव नहीं कि अपने सभी पढ़े-लिखे नागरिकों को नौकरी दे सके। इस ग़लती के सुधार की ज़रूरत है। अगर यह ग़लती ठीक न हुई तो और नुक़सान का सामना करना पड़ेगा। अभी भारत में तालीम हासिल करने की सुविधाएँ मौजूद हैं। इससे पहले कि यह दरवाज़ा बन्द हो जाए, हमें इस तरफ़ ध्यान देना चाहिये।
दूसरा दरवाज़ा तिजारत (व्यापार) का है। मौजूदा हालात में कारोबार करने में हालाँकि बहुत सी क़ानूनी दुश्वारियाँ हैं, लेकिन ये दुश्वारियाँ सबके लिये हैं। तमाम क़ानूनों के बावजूद अगर हमारे देश के लोग तिजारत में आगे बढ़ रहे हैं तो हम क्यों नहीं बढ़ सकते। इस सिलसिले में भी हमारी सबसे बड़ी रुकावट तालीम है। तालीम न होने की वजह से हम सरकारी काग़ज़ मुकम्मल नहीं करते और तिजारत की क़ानूनी शर्तें पूरी नहीं करते, इसलिये तिजारत में पिछड़ते जा रहे हैं। हम ये सोचते हैं कि सरकारी दफ़्तरों के चक्कर न काटने पड़ें। इस वजह से हम कम्पनियाँ बनाने से बचते हैं। तिजारती सरगर्मियों को क़ानून के दायरे में लाने से बचते हैं। तिजारत में हमारे पिछड़ेपन ने हमें हर मोर्चे पर पीछे कर दिया है।

एक दरवाज़ा राजनीति का है, जिसकी तरफ़ से हम मुँह फेरकर खड़े हो गए हैं। सियासत, जो क़ौमों को तरक़्क़ी के ऊँचे मक़ाम तक ले जाती है उसके हम तमाशबीन बनकर रह गए हैं। राजनीति से किनारा करने ने हमें ख़ुदकुशी के मक़ाम पर खड़ा कर दिया है। जबकि आज़ादी के बाद भारत में जिन क़ौमों ने अपनी राजनीतिक स्ट्रैटेजी बनाकर काम किया वो आज मुसलमानों से बहुत आगे हैं वो क़ौमें जिन्होंने हुक्मरानी का कभी ख़्वाब भी नहीं देखा होगा वो हुकूमत कर रही हैं और हम ये नारा लगाते रह गए हैं कि ‘मेरे बाप बादशाह थे’

राजनीति में हमने अपना कोई एजेंडा नहीं बनाया, बल्कि दूसरों की ख़ैरख़ाही में अपना घर बर्बाद करते रहे। अपनी पार्टी बनाने पर कभी इत्तिफ़ाक़ न हो सका। जिन लोगों ने हिम्मत करके अपनी पार्टी बनाई उन्हें दुश्मनों का एजेंट कहकर रिजेक्ट कर दिया। हमें यही समझाया जाता रहा कि अपनी पार्टी बनाने से हिन्दु एक हो जाएगा और देश पर बीजेपी की हुकूमत हो जाएगी। मगर आज कोई ये बताने की तकलीफ़ नहीं करता कि आख़िर मुस्लिम सियासी पार्टी के बग़ैर बीजेपी कैसे आ गई। न यह बताने की तकलीफ़ करता है कि जिन राज्यों में मुस्लिम सियासी पार्टी मैदान में रही वहाँ बीजेपी को फ़ायदा हुआ या नुक़सान। केरल और तेलंगाना दो ऐसे राज्य हैं जहाँ एक लम्बे समय से मुस्लिम राजनीतिक पार्टी मौजूद है, लेकिन वहाँ बीजेपी अभी तक कामयाब नहीं हो सकी, ख़ैर राजनीति में इससे ज़्यादा और क्या नुक़सान हो सकता था जो अब हो चुका है, अब हमें बीजेपी के ख़ौफ़ से बाहर निकलना चाहिये और अपनी राजनीतिक पार्टी के हाथ मज़बूत करने चाहिये। हमने दूसरों के हाथ इतने मज़बूत कर दिये हैं कि उनके मज़बूत हाथों की गिरफ़्त से हमारा ही दम घुटने लगा है। राजनीति में ज़रूरत है कि मुस्लिम लीडरशिप को पूरी ताक़त के साथ खड़ा किया जाए। अपनी पार्टी के मेंबर चाहे कितने ही कम होंगे उनके मुँह में हमारी ज़बान होगी।

दूसरी पार्टी के मुस्लिम मैंबर्स हमारी ज़बान नहीं बोल सकते, ये सच्चाई अबुल-कलाम आज़ाद से शुरू होती है और दिल्ली के आम आदमी के विधान सभा सदस्यों तक आ चुकी है। दिल्ली दंगे हों या कोरोना के दौरान तब्लीग़ी जमाअत को बदनाम करने की साज़िश, सब ख़ामोश तमाशा देखते रहे। अगर किसी ने हिम्मत करके आवाज़ निकालना भी चाही तो उसकी ज़बान रोकने के लिये मुख़्तलिफ़ तरीक़े इख़्तियार किये गए। ये तो उस राजनीतिक पार्टी का हाल है जिसको मुसलमानों ने एकतरफ़ा वोट देकर दो बार हुकूमत से नवाज़ा है।

अलग-अलग हीले-बहानों से राजनीति का दरवाज़ा भारतीय मुसलमानों पर बन्द करने की कोशिशें जारी हैं। कभी कहा जाता है कि जिसके दो से ज़्यादा बच्चे होंगे उसे इलेक्शन में हिस्सा लेने का हक़ नहीं होगा, कभी राजनीति के लिये तालीम की क़ैद लगाने की बात कही जाती है, कभी चुनाव क्षेत्र में बदलाव करके मुस्लिम वोटों को बेअसर कर दिया जाता है, कभी मुस्लिम बाहुल्य वाली सीटों को अनुसूचित जाति/जनजातियों के लिये रिज़र्व कर दिया जाता है। इसलिये दूर-अन्देशी का तक़ाज़ा है कि राजनीति के सिलसिले में अपनी लीडरशिप को ही मज़बूत किया जाए।

मेरे कहने का मतलब ये है कि भारत के मुसलमान फासीवादी सरकार की वजह से डर के माहौल में न जियें, बल्कि मौजूदा मौक़ों का फ़ायदा उठाकर मुस्तक़बिल को ठीक करने की फ़िक्र करें। अगर मौजूदा मौक़ों से फ़ायदा नहीं उठाया गया तो ये मौक़े भी छीन लिये जाएँगे। हम में से हर एक को अपनी नस्ल के मुस्तक़बिल का प्लान तैयार करना चाहिये और उस प्लान में रंग भरना चाहिये। रास्तों की मुश्किलों की शिकायत करते-करते हम अपाहिज हो जाएँगे। डरने और सहमने की कोई ज़रूरत नहीं है। देश के संविधान के तहत काम करने की ज़रूरत है। देशवासियों से मुहब्बत, आपसी हमदर्दी और सहयोग की भावना, हमें इज़्ज़त और तरक़्क़ी दिलाएगी। भारत के मुसलमानों को इमाम मेहदी और मसीहे-मौऊद (हज़रत ईसा) का इन्तिज़ार ज़रूर करना चाहिये लेकिन क्या उनके इन्तिज़ार में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना अक़लमन्दी है?

हालात और सूझबूझ का तक़ाज़ा ये है कि हम तालीम, तिजारत, सियासत वग़ैरा में जो मौक़े हैं उनका फ़ायदा उठाएँ और मायूसी व नाउम्मीदी की कैफ़ियत से बाहर आएँ।

अपनी कश्तियाँ टूटी हुई पतवारों से चलाते हुए दरिया की मौजों से मुक़ाबला करते हुए हमें समन्दर से हीरे जवाहरात हासिल करना है।

हो गए लोग अपाहिज यही कहते कहते।
अभी चलते हैं ज़रा राह तो हमवार करो॥

कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली

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