कहते हैं कि हर कामयाब मर्द के पीछे एक ख़ातून का हाथ होता है। मैं कहता हूँ कि हर कामयाबी की पीठ पर ख़ातून का हाथ होता है। या यूँ कहिये कि अगर किसी काम को करने का बीड़ा कोई ख़ातून उठा लेती है तो कामयाबी ज़रूर मिलती है। ख़वातीन आधी इन्सानियत हैं, ज़िन्दगी की गाड़ी का एक पहिया अगर मर्द है तो दूसरा ख़ातून ही है। तारीख़ का मुताला ये भी बताता है कि मुश्किल वक़्तों में जब मर्द मायूस और नामुराद होने लगता है तो ख़वातीन ही उम्मीद की ज्योत जगाती हैं। हम जानते हैं कि पूरा मुल्क इस वक़्त विरोध-प्रदर्शन, धरनों और रैलियों की चपेट में है। ये धरने CAA और NRC के मामले में हो रहे हैं। मुल्क के हर कोने में इस काले क़ानून के ख़िलाफ़ आवाज़ें उठ रही हैं। आम तौर पर विरोध-प्रदर्शनों और धरनों में मर्द हिस्सा लेते हैं। मुल्क में बनने और बिगड़ने वाले क़ानूनों से औरतों को कोई सरोकार नहीं होता। ख़ास तौर पर मुस्लिम औरतें तो इस सिलसिले में बहुत पिछड़ी हुई समझी जाती रही हैं। इन पर रूढ़िवादिता के इलज़ाम लगाए जाते रहे हैं। मगर इस काले क़ानून का सबसे बड़ा फ़ायदा ये हुआ है कि मुस्लिम ख़वातीन न सिर्फ़ बेदार हुई हैं बल्कि उन्होंने अपने ऊपर लगनेवाले रूढ़िवादिता के इलज़ाम को भी धो डाला है।

मुल्क भर में यूँ तो सैंकड़ों मक़ामात पर ख़वातीन ने विरोध-प्रदर्शन किये लेकिन इन प्रदर्शनों में शाहीन बाग़ दिल्ली की ख़वातीन के प्रदर्शन को पूरी दुनिया में शोहरत हासिल हो गई है। मुल्क में भी और मुल्क से बाहर भी मीडिया ने इस पर ख़बरें और लेख लिखे हैं, हिन्दुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ़ इंडिआ, दी हिन्दू, वाशिंगटन पोस्ट, गार्जियन, न्यूयोर्क टाइम्स और अल-जज़ीरा जैसे मोतबर मीडिया ने इस पर तब्सिरे और समीक्षाएँ की हैं। बड़ी-बड़ी सियासी, समाजी, फ़िल्मी, मज़हबी और इल्मी शख़्सियतों ने विरोध-प्रदर्शनों में शरीक होकर इनका हौसला बढ़ाया। किसी मुनज़्ज़म तन्ज़ीम की सरपरस्ती के बग़ैर अंजाम पानेवाला ये मुज़ाहिरा दुनिया की ख़वातीन के लिये मशअले-राह बन गया। सख़्त सर्दी के बावजूद मुस्तक़िल चौबीस घंटे जारी रहने वाले इस प्रदर्शन को एक महीना पूरा हो चुका है। शाहीन बाग़ की ख़वातीन की हिम्मत और हौसले को हर सम्त से दाद मिल रही है। यहीं से तहरीक पाकर मुल्क के दूसरे इलाक़ों में भी इसी मॉडल पर प्रदर्शन शुरू हो चुके हैं। कानपुर, देवबन्द, इलाहाबाद, मालेगाँव, पटना, अररिया, मधुबनी और कोटा में ख़वातीन ने मोर्चा संभाल लिया है। ख़वातीन के ज़रिए अंजाम पानेवाले इन प्रदर्शनों से मुल्क और मिल्लत को बेशुमार फ़ायदे हासिल हुए हैं और हो रहे हैं और मज़ीद फ़ायदे हासिल किये जा सकते हैं।

इन प्रदर्शनों के ज़रिए ख़वातीन के अन्दर मुल्क के मसलों का शुऊर बेदार हुआ। उन्हें ये एहसास हुआ कि मुल्क तबाही की तरफ़ जा रहा है। मुल्क को बचाने की फ़िक्र इनके अन्दर पैदा हुई, शुऊर व फ़िक्र की ये बेदारी कोई मामूली बात नहीं है। किसी मुल्क की ख़वातीन में इस क़िस्म की बेदारी मुल्क में इन्क़िलाब की आहट साबित हुई है। हम देखते हैं कि ख़वातीन ने तलाक़ बिल और बाबरी मस्जिद जैसे इशूज़ पर, जो इनके मज़हब और शरीअत से मुताल्लिक़ थे, मुज़ाहिरे नहीं किये या किये तो बहुत कम, मगर जब संविधान की बात आई तो वो सड़कों पर आ गईं, संविधान के तहफ़्फ़ुज़ और सुरक्षा की ख़ातिर हर उम्र की औरत ने वतन का झंडा अपने हाथों में ले लिया। मुस्लिम ख़वातीन पर मुल्क की गोदी मीडिया से लेकर मग़रिबी मीडिया तक एक मख़सूस ज़ेहन रखती है। फ़ण्डामेंन्टलिज़्म, रूढ़िवादिता, जहालत, सिर्फ़ बच्चे पैदा करने की मशीन, अपने ही ख़ौल में बन्द, मर्दों के मज़ालिम का शिकार जैसे अनगिनत इल्ज़ाम इस पर लगाए जाते रहे हैं। शाहीन बाग़ के इस प्रदर्शन ने इन इल्ज़ामों को रद्द कर दिया। स्टेज से ख़वातीन के ख़िताब ने इनकी जिहालत का पर्दा भी चाक कर दिया। किसी तंज़ीम के बग़ैर मुनज़्ज़म और संगठित प्रदर्शन ने रूढ़िवादी होने के दाग़ को धो डाला। मुस्तक़िल एक महीने तक जमे और डटे रहने ने मर्दों के सितम और मज़ालिम जैसे इल्ज़ाम की भी पोल खोल दी। बुर्क़ा पहनने वाली औरतों की ज़बान से संविधान की भूमिका पढ़े जाने ने अपने ही ख़ौल में बन्द जैसे अपमानजनक इलज़ाम के मुँह पर तमाँचा रसीद कर दिया। इन प्रदर्शनों से एक फ़ायदा ये हुआ कि मुसलमानों में कम्युनलिज़्म (साम्प्रदायिकता) का ख़ात्मा हुआ और एकता और क़ौमी यकजहती पैदा हुई, इन औरतों के हाथों में लहराते हुए तिरंगों ने बीजेपी के हाथी-दाँत वाले राष्ट्रवाद का जनाज़ा निकाल दिया। ग़ैर-मुस्लिम बहनों की शिरकत ने मुल्क में एकता और अखण्डता (सालमियत) की एक नई उम्मीद पैदा कर दी। इन प्रदर्शनों की पूरी दुनिया में रिपोर्टिंग ने मोदी जी के झूठे नारे और दावे “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” का भी पर्दा फ़ाश कर दिया। औरतों के हौसले और हिम्मत ने उस डर से नजात दी जो मौजूदा सरकार के फ़िरऔनी रवैये से पैदा हो रहा था। औरतों के इरादों ने उन सियासी और समाजी लीडरों को ज़बान बख़्श दी जो “ज़िल्ले-इलाही” के डर से ज़बान नहीं खोल रहे थे। मुसलमानों को सबसे ज़्यादा नुक़सान फ़िरक़ाबन्दी और गरोहबन्दी ने पहुँचाया है जो मौलवीइज़्म की दैन है। इस प्रदर्शन ने मौलवीइज़्म की हवा भी निकाल दी है। मैं मुल्क भर की ख़वातीन, ख़ास तौर पर शाहीन बाग़ की ख़वातीन के हौसलों को सलाम पेश करता हूँ, इनको दाद देता हूँ और इनकी हिमायत करता हूँ।

मेरे वतनी साथियो! मगर ये लड़ाई बहुत लम्बी है। क्योंकि हुक्मराँ ख़ुद को अजय (जिसको जीता न जा सके) समझ रहे हैं। वो अपनी साज़िशों, मक्काराना चालों और असंवैधानिक ग़ुण्डागर्दी के ज़रिए ये समझ रहे हैं कि इन्हें कोई हरा नहीं सकता। वो अगले पचास साल के ख़्वाब देख रहे हैं। इनकी यही झूटी अनानियत इन्हें इस काले क़ानून को वापस लेने की राह में रोड़ा बन रही है। वो अपने ग़ुरूर को चकनाचूर करने के बजाय मुल्क को चूर-चूर कर देना चाहते हैं। वो इस डर में मुब्तिला हैं कि अगर हमने ये क़ानून वापस लिया तो हमारी हवा उखड़ जाएगी। हालाँकि उनकी हवा उखड़ चुकी है। इनके लिये ज़मीन तंग हो रही है। इनके साथी साथ छोड़ रहे हैं। हमारी औरतों में यही हौसला बाक़ी रहा तो वो पचास साल तो क्या आगे के पाँच साल भी पूरे नहीं कर सकेंगे।

हमें आगे बढ़कर औरतों के इस हौसले को सलाम करना चाहिये, इनकी हिम्मत बँधाना चाहिये, मुल्क की सालमियत (अखण्डता) इसकी जम्हूरियत की बक़ा से जुड़ी हुई है। जम्हूरी अक़दार (Democratic Values) और संविधान को बचाने की ख़ातिर हर तरह की क़ुर्बानियाँ देने के लिये हमें तैयार रहना चाहिये। औरतों के शुऊर को और इस तहरीक को अपनी नई नस्ल की तालीम व तरबियत के लिये इस्तेमाल करने की मंसूबा-बन्दी करना चाहिये। ये जोश और वलवला जो इस वक़्त मौजूद है इसे बढ़ाने की ज़रूरत है। काले क़ानून की वापसी तक और दस्तूर (संविधान) के तहफ़्फ़ुज़ की ज़मानत मिलने तक ये विरोध-प्रदर्शन और धरने जारी रहेंगे। मुझे यक़ीन है कि आगे के तीस दिन और जमे रहे तो मुल्क पर बुरी नज़र रखनेवालों के क़दम उखड़ जाएँगे। औरतों की इसी अहमियत को सामने रखते हुए शायद अल्लामा इक़बाल (रह०) ने कहा था:

वुजूदे-ज़न से है तस्वीरे-कायनात में रंग।
इसी के साज़ से है ज़िन्दगी में सोज़े-दरूँ।।

कलीमुल-हफ़ीज़
जामिया नगर, नई दिल्ली

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