मेरे उस्ताद-ए-मोहतरम मरहूम मौलाना मिंजारूल हसन साहब का इस दुनिया से चले जाना मेरी बस्ती के लिए एक ख़सारे से कम नहीं जिसकी आने वाले वक़्त में शायद ही कोई दूसरा आलिम भरपाई कर सके । मौलाना ज़रूर चल बसे लेकिन मौलाना की ज़िन्दगी एक मिसाल है जिस पर चल कर हम अपनी ज़िन्दगी को रोशनाश कर सकते हैं । मौलाना के 3 अक्टूबर वक़्त क़रीब सुबह 8 बजे जाने से शहर की गलियां सुनी हो गयीं । इनमे एक खालीपन आ गया। इन गलियों से एक राह दिखाने वाले चले गये जो सादा लिवास पहनते थे, लज़ीज़ खाने कभी उनकी पसंद नहीं रहे। एक छोटे से कमरे में रहकर क़रीब 24 साल गुज़ार देना मुश्किल है लेकिन मौलाना की मुहब्बत ने उनको ये क़स्बा नहीं छोड़ने दिया । सब उनके अपने थे और वो सबके थे । उनका कोई घर नहीं था और सब घर उनके थे।

मौलाना के इंतेक़ाल की खबर ने ना सिर्फ़ मुझे बल्कि उनके तमाम चाहने वालों की आँखे नम कर दीं । मौलाना के सफर का आगाज़ गंजडुंडवारा की ज़मीन पर अब से क़रीब 24 साल पहले मस्जिद ग़रीब नवाज़ में इमामत से हुआ। तामीर के बाद इस मस्जिद में पहली नमाज़ भी मौलाना ने ही पढ़ायी थी। मैं तब छोटा था मुझे सिर्फ मौलाना का गली से गुज़रना याद है । उसके बाद मौलाना से ताल्लुक़ तब हुआ जब मैं उनसे क़ुरान का नाज़रा पड़ने जाने लगा। उसी वक़्त मुझे मौलाना को क़रीब से देखने का मौका मिला । एक कमरा जिसमें एक चारपायी जिस पर दरी बिछी रहती थी और ज़मीन पर चटायी रहती थी जिस पर मिलने आने वाले लोग बैठ जाया करते थे मौलाना भी उनके साथ नीचे ही बैठा करते थे ।अलमारी थी जो किताबों से भरी हुई थी यही किताबें मौलाना का अब तक का कमाया हुआ ख़ज़ाना थीं । ये किताबें सिर्फ़ अलमारी की जीनत नहीं बल्कि मौलाना की आँखों से होकर गुज़र चुकी थी । इसी से मौलाना के इल्म का अंदाज़ा लगाया जा सकता है । शहर के दूसरे मोलवी अपनी इसलाह के लिये मिलने आते थे ।

अब मैं दिल्ली आ चुका था मुलाक़ात कभी घर वापस जाने पर फुप्पी के घर हो जाया करती थी क्यूँकि वहाँ मौलाना पढ़ाने के लिये आते थे । मौलाना को बच्चों से ख़ासकर बच्चियों से बहुत मुहब्बत थी उनकी तालीम को लेकर फ़िक्र कर्दा रहते थे इसीलिए पढ़ाने के बाद कुछ देर बच्चों से बातें करते थे तब एक उस्ताद नहीं बल्कि अपने घर का कोई बढ़ा शख़्स लगते थे। मौलाना अक्सर हँसाया भी करते थे । मेरे घर में दाखिल होते ही मुझे देख कर ख़ुश हो जाया करते और फिर हाल पता करते थे ।

मौलाना अब बस्ती के लोगों के दिलो में जगह बना चुके थे यही वजह रही कि ख़बर सुनते ही कई बसें/कारें आदमियों से भरकर मौलाना के गाँव ललबारा (Muradabad) पहुँच गयीं । सब ने नमाज़-ए-जनाज़ा में शिरकत की।

माँ की आग़ोश में कल मौत की आग़ोश में आज
हम को दुनिया में ये दो वक़्त सुहाने से मिले

मेरी अल्लाह रब्बुल आलामीन से दुआ है कि अल्लाह अहले खाना को सब्र दे और मौलाना के जन्नत – उल – फ़िरदौस में दर्जात बुलंद फ़रमाए ।
आमीन

(आसिफ़ शाहिद )

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