कलीमुल हफ़ीज़ कन्वीनर, इंडियन मुस्लिम इंटेलेक्चुअल्स फ़ोरम जामिया नगर, नई दिल्ली-25

-कलीमुल हफ़ीज़

आज़ादी इंसान का पैदाइशी हक़ है। आजा़दी का एहसास और आजा़दी का लज्‍ज़त बहुत बड़ी नेमत है। मगर इंसानी फि़तरत में यह बात भी शामिल है कि वह अपनी आज़ादी तो चाहता है लेकिन दूसरों की आजा़दी छीन लेना चाहता है। इसलिए मानव इतिहास के हर दौर में गु़लामी की लानत नज़र आती है। हर ताक़तवर अपने से कमज़ोर को गु़लाम बनाने के तरीक़े अपनाता है। आज भी अगर दुनिया के नक्शे पर नज़र डालेंगे तो कितने ही कमज़ोर देशों को ताक़तवर मुल्‍कों की सियासी ज़ंजीर में जकड़े हुए देखेंगे। कहीं अमेरिका बहादुर का सिक्‍का चलता है, कोई मलिका बरतानिया के मफ़ादात का निगरां है, कोई रूस के रहमो करम पर है… आदि। हर दौर में आज़ादी के आंदोलन को कुचला गया है। हर दौर में हुक्‍मराँ तबक़े ने आजादी के आंदोलन को बग़ावत का नाम दिया है।

भारत भी सभ्‍य मानव इतिहास के दौर में दो सौ साल तक गु़लाम रहा। हालांकि सांप्रदायिक गु़लामी की तारीख़ को भारत में मुसलमानों के आगमन से जोड़ते हैं। लेकिन यह बिल्‍कुल ग़लत है। *मुसलमानों ने इस मुल्‍क को गु़लाम नहीं बनाया बल्कि उसे अपना वतन बनाया। देशवासियों का ख़ज़ाना लूट कर मुसलमान किसी दूसरे देश में नहीं ले गए। देशवासियों को उनके बुनियादी अधिकारों से कभी महरूम नहीं किया। इंसाफ़ के मामले में मुसलमान और ग़ैर-मुस्लिम में कभी अन्‍तर नहीं किया। बल्कि मुसलमान यहां आए तो यहां के मज़लूम और पिछड़े लोगों ने उनको अपना मसीहा समझा। मुहम्‍मद बिन का़सिम जब यहां से जाने लगे तो सिंध वालो रोने लगे, उन्‍होंने उनकी आस्‍था, सम्‍मान में उनका मूर्ति तक बना डाली।

हम जानते हैं कि हमने यह आज़ादी कितनी कु़रबानियों के बाद हासिल की है। दस लाख इंसानी जानें तो देश विभाजन में चली गईं, अरबों खरबों का नुकसान जो हुआ वह अलग। इसके अलावा अंग्रेजी़ शासनकाल में जिन लोगों ने अपनी जान का नज़राना पेश करके जामे-शहादत पिया उनकी तादाद भी लाखों में है। इस सच्‍चाई को भी मानना चाहिए कि गांधी जी के स्‍वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने से पहले तक स्‍वतंत्रता संग्राम अकेले मुसलमान ही लड़ते रहे। लेकिन जंगे आज़ादी का जो दौर बीसवीं सदी के प्रारंभिक काल में शुरू होता है उसमें तमाम देशवासी शामिल रहे सिवाय उन सांप्रदायिक तत्‍वों के जो इत्तिफ़ाक़ से आज सत्‍ता की कुर्सी पर बैठे हैं। धर्म, ईमान और ज़मीर बेच कर कितने लोगों ने देश के साथ ग़द्दारी की, वह सब इतिहास में लिखा जा चुका है।

हमने यह आज़ादी क्‍यों हासिल की थी? यह असल सवाल है, जिसका जवाब हमें मालूम होना चाहिए। रोटी, कपड़ा और मकान तो हमें अंग्रेजी़ हुकूमत में भी मिलता था। फिर वह क्‍या चीज़ थी जिसने हमें आज़ादी के लिए अपनी जानों का नज़राना पेश करने पर मजबूर किया? दरअसल सबसे पहली बात तो गु़लामी का तकलीफ़ देने वाला एहसास और आजा़दी का आत्‍म-विभोर करने वाला स्‍वाद था जिसने आजा़दी की तहरीक में रूह फूंकने का काम किया। दूसरी बात, अंग्रेजों के इंसाफ़ का दोहरा स्‍तर था जिसमें हर हाल में हिन्‍दोस्‍तानी ही सज़ा पाता था। तीसरी चीज़, अपनी मेहनत की कमाई पर हमें मालिकाना हक़ नहीं था, हिंदोस्‍तानी न ज़मीन का मालिक था न उसकी पैदावार का। बल्कि वह जिस मकान में रहता था उसका भी किराया देता था। चौथी चीज़, अभिव्‍यक्ति की आज़ादी पर पाबंदी थी, गौरों के खि़लाफ जो बोला उसकी जु़बान काट दी गई और जिसने लिखा उसका क़लम ही नहीं, सिर तक क़लम कर दिया गया। अर्थात, व्‍यक्ति और समुदाय की आजा़दी के लिए ज़रूरी है कि वह खौ़फ़ और दहशत की मानसिकता से पाक हो, उसको इज्‍ज़त व सम्‍मान हासिल हो, उसकी जान, माल और ईमान महफू़ज़ हो, उसको अपने कमाए हुए माल को अपनी मर्जी़ से खर्च करने की आजा़दी हो, वह खेत औेर खेती दोनों को मालिक हो। अदालत में उसके साथ भेदभाव न हो, उसको अपने ज़मीर की बात कहने की, अपनी पसंद के मुताबिक़ रहने सहने की आजा़दी हो।इस पहलू से जब हम अपनी आजा़दी का जायजा़ लेते हैं तो मायूसी होती है। आज हम गु़लामी और आजा़दी में इस बात के सिवा कि हाकिम अंग्रेज के बजाय हिंदोस्‍तानी हैं, कोई अंतर नहीं पाते। खौ़फ व दहशत का यह आलम है कि किसी भी जगह इंसान महफूज़ नहीं है; किसी को गाय के नाम पर, किसी को राम के नाम पर और किसी को चोरी के नाम पर सरेआम मारा-पीटा और जिंदा जला दिया जाता है। का़नून की हुक्‍मरानी का यह हाल है कि उल्‍टा मज़लूम बल्कि मक़तूल ही पर मुक़द्दमा दायर कर दिया जाता है। अदालतों में इंसाफ़ का यह आलम है कि बेगुनाह दस, पंद्रह और बीस साल तक जेल में मुसीबतें सहने के बाद बाइज्‍ज़त बरी किए जा रहे हैं। अभिव्‍यक्ति की आजा़दी के नतीजे में जर्नलिस्‍ट दिन-दहाड़े मारे जा रहे हैं। सत्‍ता की हवस की यह इंतेहा है कि नेता आलू के भाव बिक रहे हैं। ईमान और अक़ीदे की आजा़दी का यह हाल है कि जबरन जय श्रीराम के नारे लगवाए जा रहे हैं। *यह कैसी आजादी है कि न अपनी पसंद का खा सकते हैं, न अपने खु़दा की इबादत की जा सकती है, न अपने धर्म पर अमल किया जा सकता है।* आज भी कोई दलित घोड़ी पर बैठकर अपनी बारात नहीं निकाल सकता क्‍योंकि यह सवर्ण जाति के गौरव का सवाल है। आज भी खद्दर-धारी लड़कियों की इज्‍ज़त भूखे भेड़ियों की तरह नोच रहे हैं, आज भी गवाहों का एक्‍सीडेण्‍ट करा दिया जाता है। हर साल हजा़रों किसान खु़दकुशी कर रहे हैं, बाजा़र दम तोड़ रहे हैं।

आजा़दी का दिन केवल तिरंगा लहराने, जन गण मन गाने और झांकियों के प्रदर्शन का नाम नहीं है। आजा़दी का दिन इस शपथ का नाम है कि हम गु़लामी कुबूल नहीं करेंगे चाहे यह गु़लामी देशवासियों की ही क्‍यों न हो। क्‍या मुल्‍क से इंसाफ़ पसंद करने वाले, हक़ बात कहने वाले ग़ायब हो गए? उत्‍पातियों और फ़ाश्स्टिों के सामने इतनी जल्‍दी अम्न व भाईचारे के चाहने वालों ने अपने हथियार डाल दिए!

ऐ मेरे देशवासियों, ख़रगोश के सपने से जागो; जिस आज़ादी के लिए तुम्‍हारे पूर्वजों ने कुर्बानियां दी थीं, उसको इतनी आसानी से उन लोगों के हाथों बर्बाद मत होने दो जिनके पूर्वजों ने अंग्रेजों का नमक खाया था।

 

Writer: Kaleem-Ul-Hafeez                      Convenor: Indian Muslim Intellectual Forum

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