-कलीमुल हफ़ीज़

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अधिकांश बिंदु प्रशंसनीय हैं। मिसाल के तौर पर शिक्षा तक सबकी पहुंच, शिक्षा के लिए समान अवसर, शिक्षकों की नियुक्ति में पारदर्शिता, और विकास में योग्यता का लिहाज़, व्यावसायिक शिक्षा पर जो़र, शिक्षा में टेकनाॅलोजी का प्रयोग, बड़ी उम्र के लोगों की शिक्षा की व्यवस्था, बच्चों को शारीरिक तौर पर देखभाल के लिए स्कूलों में देखभाल करने वाले कार्यकर्ता की नियुक्ति, शिक्षा वाले अधिकार पर नियम को प्रभावी बनाने की वकालत, मातृ भाषा में प्राथमिक शिक्षा, डिग्री काॅलेजेज़ और विश्वविद्यालयों के इख़्तियारों में बढ़ौतरी, शिक्षा से वंचित लोगों के लिए शिक्षा ज़ोन की तश्कील आदि। इन बिंदुओं पर सकारात्मक दृष्टिकोण से अमल किया गया तो बेहतर परिणामों की उम्मीद की जा सकती है।

नीति में स्पष्ट शब्दों में तो कहीं भी भगवा रंग नज़र नहीं आता, लेकिन इसके संदर्भ में ज़रूर नज़र आता है। मिसाल के तौर पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता और शिक्षामंत्री की निगरानी में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के कठन की बात कही गई है, जिस का मक़्सद ‘‘भारत में शिक्षा के नुक़्तए नज़र की सुरक्षा’’ होगा। यह बात सब पर स्पष्ट है कि वर्तमान सरकार की शिक्षा नीति देश के लोकतांत्रिक नज़रिए से विभिन्न है। आप अंदाज़ा कर सकते हैं कि इस आयोग के ज़रिए सरकार क्या-क्या गुल खिलाएगी। इसलिए हमारा सुझाव है कि सरकार स्पष्ट शब्दों में शिक्षा के दृष्टिकोण को स्पष्ट करे। इस आयोग की प्रमुखता नाजनीतिक लोगों के बजाए शिक्षा के माहिर लोगों के हाथों में दी जाए, ताकि इस का राजनीतिक प्रयोग न किया जा सके। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्राइमरी स्कूलों में बच्चों की ‘‘मानसिक स्वास्थ्य’’ को बढ़ाने के लिए ज़िला स्तर पर सामाजी कार्यकर्ता और सलाहकारों पर आधारित कमेटियां बनाने की बात कही गई है। यह सामाजी कार्यकर्ता कौन होंगे। उनके क्या इख़्तयारात होंगे। यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन इस बात की आशा पूरी तरह है कि यह आर. एस. एस. के कारसेवक होंगे। इस तरह सरकार हर स्कूल में कारसेवकों का अमल-दख़ल बढ़ाएगी और भगवा शिक्षा नज़रिए को लागू करेगी। स्कूली व्यवस्था की निगरानी और उनके अमल करने और मज़बूती लाने में सहयोग के लिए ज़िला शिक्षा परिषद बनाई जाएगी। इसी तरह राज्य स्तर पर स्कूलों के लिए नियम लाने हेतु एक संगठन बनाया जाएगा जिसे “राज्य स्कूल रेगूलेट्री अथार्टी‘‘ कहा जाएगा। मेयारी शिक्षा रिसर्च को हरकत में लाने के लिए “नेशनल रिसर्च फाउंडेशन“ स्थापित किया जाएगा। वास्तव में इन सभी नए संस्थानों का गठन केवल इसलिए किया जा रहा है, ताकि भगवा शिक्षा प्रणाली के विशेषज्ञों द्वारा भगवाकरण किया जा सके। हमारा यह सुझाव है कि पहले से स्थापित सरकारी संस्थानों से ही यह काम लिया जाए। उन्हें सक्रिय किया जाए। जो नए संस्थानों, समितियों और फ़ाउंडेशन स्थापित किए जाएं, तो इन में अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों को प्रतिनिधित्व दिया जाए।

हर बार की तरह नई शिक्षा नीति में भी यह बात दोहराई गई कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में दी जाएगी, बल्कि इस बार इस को जूनियर तक करने के इशारे से उल्लेख किया गया है। लेकिन हम देखते हैं कि हिंदी भाषा बोलने वाले राज्यों में कोई प्रबंधन नहीं किया जाता। उत्तर प्रदेश जहां उर्दू बोलने वालों की संख्या 19 प्रतिशत है और 5 करोड़ लोगों की मातृ भाषा उर्दू है, उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा भी प्राप्त है। वहां एक भी उर्दू मीडियम स्कूल नहीं है। हम सुझाव देते हैं कि क्षेत्रीय और मातृ भाषाओं के नामों के विवरण के साथ यह भी निर्धारित किया जाए कि किन क्षेत्रों में किस मीडियम के कितने स्कूल स्थापित किए जाएंगे।

शिक्षा से वंचित वर्गाें के लिए ख़ास शिक्षा ज़ोन की बात बेहद ख़ुशकुन है। मगर आज़ादी के बाद सरकारी फ़ैसलों पर अमल करने की जो परस्थिति है इससे किसी सकारात्मक क्रांति की उम्मीद नहीं है। उत्तर भारत में सरकार के प्राइमरी और जूनियर स्कूलों की जो बुरी हालत है, इसको देखते हुए विशेष शिक्षा ज़ोन का अंजाम सोचा जा सकता है। इसलिए हम सुझाव देते हैं कि विशेष शिक्षा ज़ोन से पहले सरकार सरकारी स्कूलों की व्यवस्था को सही करे और इन स्कूलों को प्राईवेट स्कूलों से हर हाल में बेहतर करे, और आबादी के अनुपात में स्कूलों को बढ़ाया जाए। विशेष शिक्षा ज़ोन की स्थापना में मुस्लिम अल्पसंख्यकों का ख़्याल रखा जाए, वे ज़िले जहां मुसलमान 25 प्रतिशत हैं, उन्हें विशेष शिक्षा ज़ोन में शामिल किया जाए।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्कूल के प्रबंधन के संबंध में कहा गया है कि ‘‘स्कूलों के मजमूओं के ज़रिए स्कूल की शिक्षा का प्रबंध किया जाएगा’’ यानी छोटे-छोट कम संख्या वाले स्कूलों का एक ग्रूप बनाया जाएगा। इस ग्रूप की निगरानी उस क्षेत्र का बड़ा स्कूल करेगा। इसका लक्ष्य यह बताया गया है “ताकि संसाधनों में साझा करना और स्कूल के प्रबंधन को और अधिक कुशल बनाया जा सके“। हमारा सुझाव है कि ऐसा करने से स्कूलों की स्वराज्य और आज़ादी समाप्त हो जाएगी। बेहतर होगा कि सरकार इसके बजाय स्कूलों में आधुनिक सुविधाएं मुहैया कराए, ताकि वे छोटे स्कूल भी बड़े बन जाएं।
नई शिक्षा नीति में शिक्षा की आयु अब तीन साल कर दी गई है। लेकिन क्या यह चीज़ बच्चों के शारीरिक विकास के लिए भी सही है, यह सोचने की ज़रूरत है। बचपन में शारीरिक तौर पर बच्चे का जो विकास होता है, वह स्कूल के बोझ तले दब तो नहीं जाएगा। मेरा सुझाव है कि सरकार पहले बचपन और बचपन की किलकारियों को महफ़ूज़ करने की योजना बनाए, इसके बाद यह व्यवस्था लागू की जाए। केवल मग़रिब की नक़्क़ाली में ऐसा न किया जाए।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जो पाॅलिसी बनाई गई है और जिन सुविधाओं का वर्णन किया गया है, वह सबके लिए हैं। लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में अल्पसंख्यकों के कल्चर, उनकी संस्कृति विरासत और शिक्षा की सुरक्षा के लिए संविधान में ख़ास ज़मानतें दी जाती हैं। भारत के संविधान में भी इसका ख़्याल रखा गया है। लेकिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस पहलू को नज़रअंदाज़ किया है। जिस देश में किसी अल्पसंख्यक की आबादी 20 करोड़ हो। उसके स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या पांच करोड़ हो। उसका अपना भी एक विशेष शिक्षा प्रणाली (मदरसा प्रणाली) हो। इसका राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कोई वर्णन नहीं किया गया है। हमारी राय है कि मदरसों में सरकारी मुदाख़लत के बग़ैर शिक्षा की सुविधाएं उप्लब्ध कराई जाएं। मदरसा माॅडरनाइज़ेशन के नाम पर उत्तर प्रदेश में मदरसों का इस्तेहसाल किया जा रहा है। कई वर्ष से शिक्षक वेतन से वंचित हैं। इसलिए ज़रूरी है कि सरकार निष्ठा के साथ मदरसों का आधुनिकीकरण करे, मगर आधुनिकीकरण के नाम पर कोई चीज़ थोपी न जाए। भारत के संविधान में जो बुनियादी अधिकार दिए गए हैं, वह पामाल न हों। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मदरसा एजूकेशन पर सरकार को एक चेप्टर शामिल करना चाहिए, ताकि सरकार की नीति स्पष्ट हो।

प्राचीन भारतीय संस्कृति, प्राचीन इतिहास और संस्कृति व सभ्यता के नाम पर हिन्दुत्व को थोपने से बचा जाए। मेयारी रिसर्च के नाम पर वास्वविकता के साथ खिलवाड़ न किया जाए, बल्कि शिक्षा की व्यवस्था में लोकतंत्र की भावना को बाक़ी रखा जाए, देश की सुरक्षा देशवासियों की एकता में है। देशवासियों में प्रेम तभी पैदा हो सकता है जबकि स्कूलों में आपसी भाईचारा, हमदर्दी और आपस में एक दूसरे के सहयोग की शिक्षा दी जाए। अल्पसंख्यकों की ज़ुबान, उनका कल्चर, उनका धर्म इसी सूरत में बाक़ी रह सकता है, जबकि बच्चों को उनके ताल्लुक़ से एहतराम व सम्मान की शिक्षा दी जाए। सारे धर्म एक समान सम्मान के लायक़ हैं। शिक्षा के ज़रिए आप जानवर को मनुष्य बना सकते हैं और शिक्षा के ज़रिए ही आप मनुष्य को जानवर बना सकते हैं। यह ज़िम्मेदारी देश चलाने वालों की है कि वे क्या बनाना चाहते हैं?

Writer: Kaleem-Ul-Hafeez
Convenor: Indian Muslim Intellectual Forum

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