“ख़न्दाज़न मेरे लबे-गोया पे है दर्दे-निहाँ”
(नफ़ा पहुँचाने वालों को अल्लाह ज़मीन में पाएदारी अता करता है)
कलीमुल हफ़ीज़
राम-मन्दिर की आधार शिला के बाद हिन्दुस्तानी मुसलमान ख़ुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। हिन्दुस्तान की तहरीके-आज़ादी के लिये क़दम-क़दम पर अपने त्याग और क़ुर्बानी के निशानात देख रहे हैं, उन्हें दिल्ली से लाहौर तक के हर पेड़ पर मुसलमान मुजाहिदीने-आज़ादी की लटकी हुई लाशें नज़र आ रही हैं, यतीमों की आहें और बेवाओं की चीख़ें आज भी फ़िज़ाओं में गूँज रही हैं, क़िलों के खण्डहर अंग्रेज़ों के ज़ुल्म की गवाही दे रहे हैं, अभी वो आँखें ज़िन्दा हैं जिन्होंने देश के साथ अपनों को तक़सीम (बँटवारा) होते देखा था। अभी तो आँसू भी ख़ुश्क नहीं हुए, अभी तो शहीदों के कफन से वतन की ख़ुशबू भी नहीं गयी, इतनी जल्दी हिन्दुस्तान की ज़मीन मुसलमानों पर तंग हो गई। आज का मुस्लिम नौजवान पूछ रहा है कि उनका जुर्म क्या है जिसकी सज़ा उन्हें दी जा रही है। उनकी लिंचिंग क्यों की जा रही है। उनकी मस्जिदों पर सवाल क्यों उठाए जा रहे हैं? उनके खाने-पीने पर पाबन्दियाँ क्यों लगाई जा रही हैं? उन पर अच्छी नौकरियों के दरवाज़े क्यों बन्द किये जा रहे हैं? उनकी भारतीयता और वफ़ादारी पर शक क्यों है? क्या इसी दिन के लिये हमने आज़ादी हासिल की थी? आख़िर हमें इस हाल को पहुँचा देने का ज़िम्मेदार कौन है?
मैंने इस सवाल पर जितना ग़ौर किया, मैं अपने जवाब पर मुत्मइन होता चला गया कि इस बदतर और आगे आनेवाली बदतरीन हालत के ज़िम्मेदार वो लोग हैं जिनकी इताअत और फ़रमाँ बरदारी (आज्ञाकारिता) करने की वजह से मुसलमान इस हाल को पहुँचे हैं। यानी हमारे इमाम, पेशवा और सियासी लीडर। इन्होंने ख़ुदग़र्ज़ी, मफ़ादपरस्ती, हुकूमत और सत्ता की ख़ुशनूदी और चापलूसी के चलते, धौंस-धाँधली से सीधी-सादी जनता को धोखा दिया। क़ौम इनकी पैरवी करती रही, इनके पीछे चलती रही और बेवक़ूफ़ बनती रही।
हमारे दीनी रहनुमाओं ने हमें मसलकों में बाँटा, अपने अलावा तमाम मसलकों को “गुमराह और गुमराह करनेवाला” कहा। अहले-सुन्नत के नाम पर फ़िरक़ा बना, नबी (सल्ल०) की मुहब्बत में इन्सानों से नफ़रत की गई। मुर्दों पर चादरें चढ़ीं और ज़िन्दा लाशें बेकफ़न रह गईं, उर्स और क़व्वाली के नाम पर दुकानें सजीं, मज़ारों के ठेके हुए। अहले-हदीस के नाम से फ़िरक़ा बनाया गया, अपने सिवा बाक़ी सारे कलिमा पढ़ने वाले गुमराह ठहराए गए और तक़लीद शिर्क ठहराई गई और यूँ सारे मुसलमान मुशरिक हो गए। शिआ हज़रात का क्या ज़िक्र कि हुसैन (रज़ि०) के ग़म में हुसैन (रज़ि०) के नाना का पैग़ामे-मुहब्बत व भाईचारा भूल गए, सहाबा की शान में गुस्ताख़ी करना इबादत ठहराया गया। एक दीनी गरोह दूसरे दीनी गरोह पर सियासत करने का इलज़ाम लगाकर ख़ुद सियासत के मज़े लेता रहा, मुल्क व मिल्लत बचाओ पर लाखों के मजमे लगाकर निफ़ाक़ (पाखंड) की वैक्सीन बेचता रहा, कोई हुकूमते-इलाहिया का नारा लगाते हुए आया और जम्हूरियत की बक़ा और तहफ़्फ़ुज़ की मुहिम चलाने लगा। बड़ी मस्जिद के इमाम साहिब सियासी बाज़ीगरों के साथ तस्वीर खिंचवाते रहे और क़ौम का सौदा करते रहे। सब ने अपनी ही क़ौम के ख़िलाफ़ ज़बान, क़लम और हथियार चलाए, स्टेज सजाकर शोला-बयानी की, उन शोलों से दूसरों के घर जलाए मगर नहीं सोचा कि अपने हाथ भी जल जाएँगे। हमने एक-दूसरे की मस्जिदें तक बन्द करा दीं, दूसरों का फ़ैसला करने वाली मुशावरत ख़ुद अपने मुक़द्दिमे हाई कोर्ट में ले गई, मुस्लिम पर्सनल लॉ के स्टेज से मुस्लिम इत्तिहाद का नक़ली मुज़ाहिरा किया गया। दारुलउलूम और मज़ाहिरुल-उलूम के हिस्से-बख़रे किये गए। बातिल फ़िरक़ा बताकर मदरसे मौदूदियत, देवबन्दियत, रज़ाख़ानीयत, राफ़ज़ियत, मुक़ल्लिदीन और ग़ैर-मुक़ल्लिदीन के ख़िलाफ़ मासूम बच्चों के दिल-दिमाग़ में ज़हर भरते रहे। ये बच्चे जब मेंबर व मेहराब पर बैठे तो ज़हर का शरबत पिलाते रहे, किसी ग़ैर फ़िरक़े के मस्जिद में आने से मस्जिदें नापाक हो गईं और धोई गईं, (ऐसे में किसी ग़ैर-मुस्लिम को मस्जिद में कैसे आने देते) मस्जिदें और मदरसे मसलकों के नाम पर तक़सीम हो गए। दाढ़ी की पैमाइश मसलक और जमाअत के लिहाज़ से डिज़ाइन की गई। टोपियों के रंग और साइज़ फ़िक्र की पहचान बन गए। इन्फ़ाक़, सदक़ात, ज़कात और नज़राने मदरसे और मौलवियों के लिये ख़ास होकर रह गए, इज्तिमाई निज़ामे-ज़कात की मुख़ालिफ़त की गई, ज़कात की मदों को उलमा ने बयान करना छोड़ दिया कि कहीं उनका कारोबार न घट जाए। चन्दा करना बुरी चीज़ नहीं है ज़ाहिर है वेलफ़ेयर और इज्तिमाई काम चन्दे से ही होंगे लेकिन चन्दे में जो करप्शन आया उसने शरीफ़ और दीनदार फ़क़ीरों की एक खेप तैयार कर दी। 50% तक कमीशन, सफ़र ख़र्च अलग से, फ़र्ज़ी मदरसों के नाम पर चंदा, मदरसा असली तो फ़र्ज़ी रसीद बुक पर चंदा, मदरसे की रक़म से ज़ाती कारोबार, मदरसे में फ़र्ज़ी यतीम, तमलीक के नाम शरीयत का मज़ाक़, क़ौम के फ़र्ज़ी मदरसों का निजीकरण। कौन-सा करप्शन है जो इस मैदान में नहीं है।
आज़ादी से पहले तहरीके-आज़ादी (स्वतंत्रता संग्राम) में आलिम, दानिशवर (बुद्धिजीवी) और मुख़लिस मुसलमान शामिल थे। मुल्क के बँटवारे के नतीजे में शुऊर-समझ रखने वाले एक्टिव मुसलमानों की बड़ी तादाद पाकिस्तान चली गई। हिन्दुस्तान में आलिमों ने कॉंग्रेस को सब कुछ मान लिया और ख़ुद सियासत से न सिर्फ़ तौबा कर ली बल्कि हराम समझ लिया। इस तरह आज़ादी के बाद हमारी सियासी क़ियादत मफ़ाद-परस्त और बदकिरदार लोगों के हाथों में चली गई। जिनकी लुग़त (Dictionary) में दीन, अख़लाक़, किरदार, क़ौम, इख़्लास, वफ़ा, क़ुर्बानी, आख़िरत जैसे अलफ़ाज़ ही नहीं थे। इनका टारगेट सिर्फ़ पैसा और ऐश व इशरत था। इसे हासिल करने के लिये वो किसी भी हद तक जा सकते थे। चालीस साल तक कॉंग्रेस की हिमायत की जाती रही। बाबरी मस्जिद गिरा दिये जाने के बाद मुसलमान बग़ैर चरवाहे का रेवड़ हो गए। जिसने जिधर चाहा हँका लिया और जो कभी बादशाह थे, फिर बादशाहगर बने, अब सिर्फ़ तमाशा बनकर रह गए हैं।
दूसरी तरफ़ आर एस एस ने 33 करोड़ देवताओं के मानने वालों को संस्कृति और देश-भक्ति के नाम पर एक कर दिया। उसने स्कूल खोले, हॉस्पिटल बनाए, आश्रम खड़े किये, कोचिंग सेंटर के ज़रिए सिविल सर्विसेज़ की सीटों पर क़ब्ज़ा किया, तमाम सियासी पार्टियों में शामिल होकर उन्हें मुस्लिम मुख़ालिफ़ फ़ैसलों पर मजबूर किया। उसने जैनियों, सिखों और बौद्धों को हिन्दू-धर्म का हिस्सा बना लिया जबकि इन तमाम धर्मों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है। हम एक कलिमा, एक ख़ुदा, एक रसूल, एक क़ुरआन और एक क़िब्ला रखने वाले सैंकड़ों ख़ानों में बाँट दिये गए और बाँटने का ये पाक अमल हमारी क़ियादत के हाथों ही अंजाम पाया।
मेरी राय में इसका हल यह है कि हम लीडरशिप की ज़ेहनी ग़ुलामी और अन्धी अक़ीदत से आज़ादी हासिल करेें। कोरोना ने हर घर में इमाम और मुअज़्ज़न पैदा कर दिये हैं, दीन और शरीअत का कोई अमल ऐसा नहीं है जहाँ किसी मदरसे से फ़ारिग़ आलिम ही की ख़िदमात लाज़िमी हों। इसलिये अपने दीनी मामले ख़ुद अंजाम दिये जाएँ। इससे जनता दीन से क़रीब होगी। दूसरा काम यह है कि फ़िरक़ों और मसलकों के नाम पर हर तरह के फ़साद से बचा जाए। जन्नत और जहन्नम में भेजने का काम ख़ुदा पर ही छोड़ दिया जाए। तीसरा काम यह है कि अल्लाह की राह में जो कुछ भी ख़र्च किया जाए अपने आस-पास, अपने दोस्तों और रिश्तेदारों की ज़रूरतों पर अपने हाथ से ख़र्च किया जाए। चौथा काम मदरसों के निसाब पर रिव्यूव का है। तमाम मदरसों के निसाब में इन्सानों का एहतिराम, मुसलमानों की इज़्ज़त, उम्मत का इत्तिहाद और इन्सानियत को फ़ायदा पहुँचाने वाली बातों को निसाब में शामिल किया जाए। नफ़रत पर बेस्ड सारी किताबें जला दी जाएँ। सियासी मैदान में बदकिरदार लोगों को वोट करने से बेहतर है कि NOTA का बटन दबा दिया जाए। ख़ुदा के वास्ते अपने मक़ाम को पहचानिये। हम तमाम इन्सानों को फ़ायदा पहुँचाने के लिये पैदा किये गए हैं। ख़ुदा के इस क़ानून को समझिये जिसके मुताबिक़ फ़ायदा पहुँचानेवालों को अल्लाह ज़मीन में पाएदारी अता करता है। “अल्लाह हक़ और बातिल की मिसाल बयान करता है, फिर जो झाग है वो यूँ ही जाता रहता है, और जो लोगों को फ़ायदा दे वो ज़मीन में ठहर जाता है, इसी तरह अल्लाह मिसालें बयान करता है।” (सूरा रअद : 43)
आ नहीं सकती ज़बाँ तक रंजो ग़म की दास्ताँ।
ख़न्दाज़न मेरे लबे-गोया पे है दर्दे-निहाँ॥
कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली